जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
पर वे न बोले। काका बोले, "ठीक है।"
बिहारी ने कहा :
'करि फुलेल को आचमनु, मीठौ कहत सराहि।
रे गंधी! मति अन्ध तू, इतर दिखावत काहि।"
रे गंधी! मति अन्ध तू, इतर दिखावत काहि।"
(यहां इत्र का आचमन करके प्रशंसा की जाती है। और गंधी! तू मूर्ख है, तू भला किसे इत्र दिखा रहा है।)
अतिथि पर सीधी चोट पड़ी। पी गए। बोले, "खूब कहा।"
उन्हें जैसे प्रमाणित करना पड़ा कि यह चोट उन पर नहीं, असल में काका पर हुई थी। पर बिहारी का मन नहीं भरा। वह अपनी राय में यहां व्यर्थ सुना रहा था। बिहारी ने फिर कहा :
"जदापि पुराने, बक तऊ, सरवर निपट कुचाल ।
नए भये तु कहा भयौ, ये मनहरन मराल ।'
नए भये तु कहा भयौ, ये मनहरन मराल ।'
(हे सरोवर! पुराने बगुले हैं, तो क्या इन पर ममता कर रहे हो? हम नए हैं पर हैं तो मनहरण वाले हंस।)
सूखे मुंह से अतिथि ने कहा, “बहुत अच्छे। बहुत अच्छे।"
इस समय तक सब में दिलचस्पी आ गई थी। काका समझ नहीं पा रहे थे कि क्या कहें। बिहारी ने मौन देखकर कहा :
"कर लै सूघि सराहि तू, रहे सबै गहि मौनु।
गंधी अंध, गुलाब कौ, गंवई गाहकु कौनु।"
गंधी अंध, गुलाब कौ, गंवई गाहकु कौनु।"
(ओ गंधी! यहां क्यों आ गए। पहले इन्होंने इन हाथ में लिया, फिर सूंघा, तारीफ की, पर खरीदने के वक्त चुप हो गए।)
काका ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
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