जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
बिहारी के मन की आग ठण्डी नहीं हुई थी। उसी ने धीरे से कहा, "यह भी अन्योक्ति
है।"
बिहारी ने काका की ओर देखा। बोले, “चलो भइया। अब देर हुई। इन्हें अब सोने
दो।"
अतिथि ने गौरव से एक अशर्फी निकालकर हथेली पर रखी और दूसरे हाथ को जोड़कर
बिहारी की ओर भेंट को बढ़ा दी।
"ले लो," काका ने व्यंग्य किया। उनका मन इस समय कटा हुआ था ही।
बिहारी ने कहा, "नहीं, नहीं, मैं इस योग्य नहीं।"
"हमारी भी तो सुनिए!" अतिथि ने कहा।
बिहारी ने कहा :
वह चितवनि औरै कछु, जिहि बस होत सुजान!''
(विशाल नुकीले नयनों वाली कितनी स्त्रियां नहीं हैं, पर वह और ही होती है जिसकी आंख देखकर सुजान वशीभूत होता है।)
काका श्रृंगार सुनकर फिर उछल पड़े।
बोले, "अरे! वाह-वाह! कमाल कर दिया। क्या बात कही है! हेतु-उत्प्रेक्षा! धन्य है, धन्य है! बस, ले लो अशर्फी।"
बिहारी ने उनकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। और बोला, “हेतूत्प्रेक्षा नहीं काका! अतिशयोक्ति!"
काका बोले, "हां-हां, मैं वही कहने वाला था।"
बिहारी ने अशर्फी उठा ली। काका बोले, “देखा न? फायदा करा दिया कविराइ!"
बिहारी के तीर-सा लगा, उसने अशर्फी उछाली और वह गिरी जाकर द्वार पर बैठे नाई की गोद में।
नाई ने आशीष देकर उठा ली। काका ने चिढ़कर कहा, “खूब दानी हो!"
बिहारी ने कहा :
चिनगी चुगै अंगार की, चुगै कि चन्द मयूख'"
(चकोर या तो अंगार खाता है या चंद्रकिरण। ध्यान से देखो वह और कुछ नहीं खाता।)
बिहारी चल पड़ा, रुका नहीं। उसका सिर उठा हुआ था।
पीछे से अतिथि ने कहा, 'अनुप्रास और अन्योक्ति।"
बिहारी चला आया। अतिथि ने कहा, “एक दिन यह बहुत बड़ा कवि बनेगा।"
काका ने मुंह बिचकाकर कहा, “मुफ्त की मिल जाती है न? तभी इतनी ठसक है।"
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