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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...

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दक्खिन की लड़ाई खतम हो चुकी थी। शाहज़ादे खुर्रम और खुद शाहंशाह जहांगीर ने वहां जाकर सेना का संचालन किया था। अहमदनगर और बीजापुर के शासक झुक गए थे। शाहंशाह का झण्डा दक्षिण में अपराजित रूप से फहराने लगा था। पंजाब का भयानक ताऊन उत्तर भारत में भी फैल गया था। सैकड़ों लोग मर रहे थे। धीरे-धीरे वह बाढ़ उतर गई। विधाता की भयानक मार ने लोगों को जर्जर कर दिया। बिहारी ने देखा और लिखा :

 
जिन दि देखे वे कुसुम, गई सु बीति बहार।
अब अलि रही गुलाब में, अपत कंटीली डार।

(हे अलि, अब तो इस गुलाब की डाल में कांटे ही बच रहे हैं। वे दिन बीत गए जब इमसें फूल थे।)

लोगों ने अन्योक्ति को नहीं समझा, परन्तु भाव वे समझ गए। वे उजड़ गए थे। बिहारी का मन भी अत्यन्त दुखी था।

किसानों पर करों का भयानक बोझ था। वे गरीब होते जा रहे थे। बिहारी ने लिखा:

कहैं इहैं सब स्रुति सुमृति, इहै समाने लोग।
तीन दबावत निसक ही, राजा, पातक, रोग।

(राजा, पाप और रोग निस्संकोच सबको दबा लेते हैं, यह श्रुति पुराण कहते हैं।)

जैसे लोगों के मन की बात उभर आई थी। रोग वे देख चुके थे, राजा को वे देख रहे थे। बिहारी का स्वर लोगों में गूंजने लगा। दीनों का जीवन अत्यन्त कठिन था।

कारीगर गरीब हो रहे थे। उन पर तूरानी और ईरानी दलाल अभी तक लदे हुए थे। बिहारी को चारों ओर अपमान दिखाई देता था। उसके पास कुछ नहीं था। वह पराश्रित था। हाथ में कलम के सिवाय उसके निकट कुछ नहीं था। सुशीला थी, किन्तु वह भी अत्यन्त खिन्न रहती। ससुराल में रहते अब छह वर्ष बीत चुके थे।

मुगल वैभव अपने सम्पूर्ण मद से छाया हुआ था। अपने हिसाब से जहांगीर ने कर भी माफ किए थे; महसूल बन्द करके व्यापार भी बढ़ाया था; सराएं, मदरसे और अस्पताल खुलवाए थे, कुएं खुदवाए थे, न्याय के लिए स्वयं तत्पर रहता था, किन्तु वैभव की लूट भी अखण्ड थी। बिहारी देखता था, किन्तु कुछ समझ नहीं पाता था। वह इसे व्यक्तिगत गुण-दोष के अन्तर्गत रखकर देखता था।

और इधर ससुराल का जीवन एक भार ही था जो उसके आत्मसम्मान को अब कचोटने लगा था।
बिहारी ऊब चला था। वह चुपचाप आकाश को देख रहा था।

सुशीला ने कहा, “क्या सोच रहे हो?"
आकाश में पक्षी उड़ रहा था। साथ में उसकी प्रिया थी।
"देखती हो?"
उसने देखा।
बिहारी ने कहा, “सब दुखी हैं, सब दुखी हैं सुशीला।"
हठात् उसके मुख से निकला :

“पटु पांखे, भखु कांकरें, सपर परेई संग।
सुखी परेबा पुहुमि मैं, एकै तुही विहंग।"

(हे पक्षी! एक तू ही इस पृथ्वी पर सुखी है क्योंकि तेरे पंख ही तेरे वस्त्र हैं, तू कंकड़ खा लेता है और पंखों वाली ही तेरी प्रिया साथ है।)

सुशीला ने आंखों में आंसू भरकर कहा, “सचमुच! न वे कपड़ों के लिए मुहताज हैं, क्योंकि भगवान ने उन्हें वे दे दिए हैं। प्रिय साथ है, कितनी सुखी है वह? और खाने को कंकड़ कहां नहीं मिल जाते।"

फिर रुककर कहा, “सुनते हो! मैं यहां नहीं रहूंगी। कहीं भी चलो। जैसे होगा गुजर कर लेंगे, पर इस अपमान से तो बच जाएंगे।"

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