जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
बिहारी उठ खड़ा हुआ।
उसने स्वामी नरहरिदास को पत्र लिखा :
संगति दोष लगै सबनु, कहेति सांचे वैन
कुटिल-बंक-भुव संग भए, कुटिल-बंक गति नैन।।
वे न इहां नागर बढ़ी, जिन आदर तो आब।
फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ, गंवई-गांव गुलाब ।।
चल्यो जाइ ह्यां को करै, हाथिनु को व्यापार।
नहिं जानतु, इति पुर बसैं, धोबी, ओड़, कुम्हार ।।
मरतु प्यास पिंजरा पर्यो, सुआ समै के फेर ।
आदर दै दै बोलियतु, बाइसु बलि की बेर।।
सबै हंसत कर तारि दै, नागरता के नांव।
गयौ गरबु गुन कौं सबु, गएं गंवारें गांव ।।
सीतलतारु सुवास को, घटै न महिमा मूरु।
पीनस वारे ज्यौं तज्यौ, सोरा जानि कपूरु।।
कुटिल-बंक-भुव संग भए, कुटिल-बंक गति नैन।।
वे न इहां नागर बढ़ी, जिन आदर तो आब।
फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ, गंवई-गांव गुलाब ।।
चल्यो जाइ ह्यां को करै, हाथिनु को व्यापार।
नहिं जानतु, इति पुर बसैं, धोबी, ओड़, कुम्हार ।।
मरतु प्यास पिंजरा पर्यो, सुआ समै के फेर ।
आदर दै दै बोलियतु, बाइसु बलि की बेर।।
सबै हंसत कर तारि दै, नागरता के नांव।
गयौ गरबु गुन कौं सबु, गएं गंवारें गांव ।।
सीतलतारु सुवास को, घटै न महिमा मूरु।
पीनस वारे ज्यौं तज्यौ, सोरा जानि कपूरु।।
(संगत के दोष से दोष लगता है, यह सच बात है। भौंहे टेढ़ी होती हैं जिनके संग नयन भी ढेढ़ा देखते हैं। अरे गुलाब, इस गंवई गांव में तेरा फूलना भी बेकार हो गया है। यहां तेरा आदर कौन करे? हाथियों का व्यापार यहां करते हो? जाओ। यहां धोबी, ओड़ और कुम्हार रहते हैं। समय के फेर से तोता पिंजरे में प्यासा मरता है और कौए श्राद्ध के कारण बार-बार बुलाए जाते हैं। जहां लोग नागरता के नाम पर ताली बजाकर हंसते हैं, वहां अपना गुण-गर्व स्वयं मिट जाता है। कपूर को पीनस का रोगी गन्धहीन समझकर त्याग दे, तो भी उसकी शीतलता और गंध में अन्तर नहीं पड़ता।)
सुशीला पढ़ती रही। आज उसे अपने पति पर कुछ गर्व हुआ। बिहारी अभी कुछ सोच रहा था।
बोली, 'चलने के लिए समय तो ठीक है, हेमंत बीत रहा है। दिन कितना छोटा हो गया है।"
बिहारी ने लिखा :
आवत जात न जानिए, तेजहिं तजि सियरान
घरतिं जंवाई लौ घट्यौ, खरौ पूस दिन मान।
(पूस का दिन आता-जाता नहीं दीखता, तेजहीन है, इतना छोटा हो गया है; जैसे
ससुराल में रहने वाले दामाद का मान और तेज घट जाता है।)घरतिं जंवाई लौ घट्यौ, खरौ पूस दिन मान।
उसके मुख पर प्रसन्नता और तृप्ति दिखाई दी।
"ठीक है?" उसने पूछा।
“यह क्या लिख दिया तुमने? इसमें तो साफ दीख गया सब! क्यों?" सुशीला ने कहा, “स्वामी जी क्या सोचेंगे!''
"तभी तो सोचेंगे।' बिहारी ने कहा, “वे मेरे दीक्षागुरु हैं, उनसे मैं क्या छिपाऊं!"
"फिर अब?"
"देखो, कुछ होगा ही।"
बिहारी ने कहा तो, परन्तु क्या होगा, यह वह कुछ नहीं कह सकता था।
किन्तु कुछ भी हो, यहां का जीवन अब उसके लिए बहुत कठिन हो गया था।
और इस जीवन का कोई अब तात्पर्य भी नहीं था। इस मूर्खता के बीच पड़े रहने से लाभ ही क्या था !
उसने कहा, “सुशीला! यों भी तो काम नहीं चलता। अब मैं छोटा भी तो नहीं रहा।"
दुपहर बीत गई।
एक ठाकुर का हरकारा जाता था। ब्राह्मण जानकर बिहारी का पत्र भी पहुंचाने का जिम्मा उसने ले लिया।
रात को बिहारी ने कहा, “सुशीला! अब मैं धन कमाऊंगा। उठूँगा और तब यह सब देखना, जो मेरा अपमान करते हैं, वे ही मेरे सामने खड़े रहेंगे।"
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