जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
सुशीला ने अविश्वास से देखा, जैसे वह कुछ नई बात सुन रही थी।
जायदाद नहीं, कुछ नहीं! फिर कैसे होगा यह सब!
परन्तु दूसरे दिन की भोर पहले की-सी ही हुई। उसमें कोई नवीनता नहीं थी।
दो महीने बीत गए।
सुशीला रोज कहती, “कोई जवाब नहीं आया।"
बिहारी को याद आया। बैरागी को प्रीत कहां होती है।
बहुत दिन बाद आज उसने तम्बूरा छेड़ा। कुछ ही देर में सब आ इकट्ठे हुए। आज
बिहारी गा रहा था। क्यों? कैसा अच्छा गाता था। किन्तु सुशीला के मन में आशा
निराशा में बदल चली।
तीसरे दिन सुबह हो चली थी। एक आदमी ने आकर कहा, “बिहारीलाल चौबे यहीं रहते
हैं?"
बिहारी ने कहा, "हां मैं ही हूं।"
आगन्तुक ने हाथ जोड़े।
'मैं ठाकुर भूदेवसिंह हूं। स्वामी नरहरिदास के दर्शन करने गया था। लौटते समय
उन्होंने इधर से जाने की आज्ञा दी।"
"स्वामी जी! तो उन्होंने सुन ली?"
"यह पत्र दिया है।"
“अब किधर को जा रहे हैं?"
"अपने गांव। बस घड़ी-भर का रास्ता है मथुरा से।"
"रोटी खाते जाइए।"
"ब्राह्मण का आशीर्वाद बहुत है।"
उसने घोड़ा बढ़ाया। बिहारी ने कहा, “आपने बहुत कष्ट उठाया।"
वह हंसा और चला गया। बिहारी का मन उछलने लगा। क्या होगा। पत्र को लिए वह
क्षण-भर देखता रहा। फिर उसने उसे धीरे से खोल डाला। तब बिहारी ने पढ़ा :
"चले आओ। कोई न कोई प्रबन्ध किया ही जाएगा।"
वह प्रसन्न हो उठा।
सुशीला ने जाने कहां से झांक लिया। मौका निकालकर आ गई पत्र देखा तो आंखें चमक
उठीं।
"मुझे ले चलोगे न?"
"तुम्हें? अभी क्या प्रबन्ध है वहां? खाएंगे क्या?"
वह गई। पांच अशर्फियां ले आई। फिर कहा, “यह मैंने बचा रखी थीं।
ऐसे ही दिन के लिए। जानती हूं, तुम्हें तब न देकर मैंने कष्ट दिया। पर बताओ
मैंने ठीक किया न? आज क्या करते?"
बिहारी ने उसका हाथ कृतज्ञता से पकड़ लिया।
"मुझे ले चलोगे न?'' उसने फिर कहा, "मैं यहां परायों में कैसे रहूंगी?'
अपना विवाह लड़की को मायके में पराया नहीं बनाती, बनाता है भाई का
विवाह-भाभी!
दूसरे ही दिन वे चल पड़े।
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