जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
तीन
बादशाह के विशाल लश्कर को बिहारी ने देखा तो वैभव को देखता ही रह गया।
सुशीला ने कहा, “आजकल तो हमें वहां घुसने की भी आज्ञा नहीं मिलेगी।"
तेईस वर्ष का था बिहारी। सुन्दर!
सुशीला ने कहा, “कब जाओगे?"
"अभी।"
"तुम्हारे पास कपड़े तो कीमती नहीं।"
“साफ तो हैं। मुझे और जरूरत भी क्या है? मैं तो ब्राह्मण हूं।"
यह एक अलग गर्व था।
उसने फिर कहा :
"जाके एका एक हूं जग ब्यौसाई न कोइ।
सो निदाघ फूलै फरै आकु डह डहौ होइ।"
सो निदाघ फूलै फरै आकु डह डहौ होइ।"
(जिसका कोई सहायक नहीं होता, व्यवसाय नहीं होता, वह आक भी निदाघ में भी हरा-भरा रहता है। ईश्वर ही सबका रखवाला है। भला गर्मी में तो बाकी सब सींचे हुए पेड़ भी कुम्हला जाते हैं।)
और फिर उसने सहसा ही उसका हाथ पकड़कर कहा :
“दीरघ सांस ने लेहु दुख, सुख साईं हिं न भूलि।
दई-दई क्यों करतु है, दई-दई सु कुबूलि ।'
दई-दई क्यों करतु है, दई-दई सु कुबूलि ।'
(दुख में दीर्घ श्वास मत लो, सुख में साईं को मत भूल। दैव-दैव करके क्यों पुकारता है, विधि में जो दिया उसे ही कबूल कर।)
सुशीला ने कहा, "वहां बादशाह होंगे?"
"हां, हैं। और बड़े-बड़े उमराव लोग होंगे?"
"तुम उनके बीच जाओगे?' सुशीला ने उसकी ओर देखा।
आंखों में अविश्वास था।
"क्यों?"
"कुछ नहीं।"
"मुझे बताओ न?"
"यों ही सोचती थी।"
"बताती क्यों नहीं?"
"और भी बड़े-बड़े कवि होंगे वहां।"
"मंडल, हरनाथ, प्रसिद्ध, होलहाय, तारा, मुकुन्द और पंडितराज जगन्नाथ!
बादशाह के यहां क्या कमी है! गंग थे। मारे गए।"
"कैसे?"
"बादशाह ने हाथी से कुचलवा दिया।"
सुशीला कांप उठी।
पूछा, "क्यों?"
"बादशाह नाराज हो गए थे। गंग दबङ्ग थे।"
"ऐसों को रहने दो। इन लोगों का क्या ठीक! आज खुश, कल नाराज! हम तो गरीब ही भले।"
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