जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
बिहारी हंसा। बोला, “राजा और कवि की चोट तो सदा से होती आई है। तुम डरती हो।
पहले समयों में कैसे-कैसे राजा थे। विक्रमादित्य! एक से एक टक्कर के महाकवि
इनकी सभाओं में रहते थे। अकबर शाह के यहां भी बड़े-बड़े लोग इकट्ठे हुए,
किन्तु नवरत्न का दर्जा कोई हिन्दु कवि नहीं पा सका। वैसे खानखाना तो थे।"
“पर मुझे तुम्हारी ओर देखकर अचरज होता है। तुम तो अभी बहुत छोटे हो। तुम
मुझसे दो ही बरस तो बड़े हो!"
"तुम ऐसी कौन-सी छोटी हो।"
वह हंस दी। बोली, “देखो! वहां किसी से कुछ कहना नहीं।"
"जैसे मैं तो सबसे कुछ कहता फिरता हूं।"
बिहारी ने अपने केशों में कंघी फेरी और सिर पर पगड़ी रखी।
सुशीला ने मन मारकर देखा। जब वह निकलकर गया, तब, तब तक देखती रही, जब तक वह
दिखाई देता रहा।
जब वह स्वामी नरहरिदास की कुटी पर पहुंचा, देखा, बाहर बड़े-बड़े अफसरान खड़े
थे। ऊंची मूंछे, ऊंचे गलमुच्छ ही दिखाई देते थे। हर एक की चाल में अकड़ थी।
बिहारी मस्त चाल से चलता हुआ द्वार के पास पहुंच गया।
चोबदार आगे बढ़ा, “कौन है?"
"हर स्वामी जी के दर्शन करना चाहते हैं।"
"इस वक्त साहबेआलम शाहज़ादे खुर्रम स्वामी जी के पास हैं। कोई भीतर नहीं जा
सकता।"
बिहारी लाल ने क्षण-भर सोचा और फिर नरहरिदास का पत्र निकालकर कहा, “इसे इसी
वक्त भीतर पहुंच दो।"
चोबदार ने एक दूसरे व्यक्ति की ओर देखा। वह पत्र लेकर भीतर चला गया।
बिहारी खड़ा रहा। एक राजपूत सामन्त पास आया और बोला, “क्या बात है पण्डित!"
बिहारी ने कहा :
मरुधर पाय मतीरहीं, मारू कहत पयोधि।।
(जेठ मास की तपती दुपहर में रेगिस्तान के निवासी सब ओर जल की खोज करते फिरते हैं। जब उन्हें तरबूज मिल जाता है तो उसी को समुद्र मान लेते हैं। )
राजपूत बिगड़ा। बोला, “कवि हो! पर हमें मतीरा कहते हो?"
बिहारी ने हंसकर कहा, “शाहों के यहां बड़े-बड़े कवि होते हैं। पर यहां कोई नहीं। आप मुझसे ही काम चला लें, इसलिए मैंने अपने को ही कहा है।"
राजपूत ने हंसकर कहा, “बहुत अच्छा कहा। आदमी गहरे हो। कह भी गए और बना भी लिया।"
चोबदार ने भीतर से आकर सलाम किया। राजपूत ने आश्चर्य से देखा।
यह पण्डित नितान्त साधारण वस्त्र पहने! इसे शाहज़ादा खुर्रम का आदमी सलाम करे! वह पीछे हट गया।
चोबदार ने कहा, “आइए।"
बिहारी ने भीतर प्रवेश किया।
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