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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...


थोड़ी-सी अंगूरी गले में उतरते ही वह पुलक उठा और बोला, "कविराइ!
रसों का राजा कौन!"
बिहारी ने देखा कि सुन्दरियां उसे मुस्कराकर देख रही थीं।
"हां, हां,' शाहज़ादा ने कहा, “यह जोधपुर की है। बड़ा अच्छा नाचती है। देखोगे!"
शाहज़ादे ने ताली बजाई।
सेवक ने द्वार पर झुककर कोर्निश की।
"नाच का इन्तजाम करो।"
वह 'जो हुक्म' कहकर गया। और कुछ ही देर में साजिंदे आ गए। रंग जम गया।
शाहज़ादे ने कहा, “आज कविराइ होड़ है। यह ऐसा गाती है कि पूछो नहीं। तुम इसके संगीत को सुनो, यह तुम्हारी कविता सुनेगी। बड़ी पारखिन है।"
शाहजादा ने प्रशंसात्मक रूप से सिर हिलाया।
नृत्य प्रारम्भ हो गया।

नर्तकी ने रहीम का बरवै गाया :
   

'कै गोयम अहवालम, पेश निगार ।
तनहा नज़र न आयत, दिल लाचार।"

शाहज़ादा मुग्ध था। बिहारी ने उसे कुछ ही देर में अपने गहरे संगीत-ज्ञान से चकित कर दिया।
नर्तकी चली और पास आ गई।
इजाजत लेकर बैठी।
शाहज़ादा ने कहा, "कविराइ! वर्णन करो।" "
बिहारी में संगीत की माधुरी गूंज रही थी। यहां थी कला की परख । स्वर के एक-एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म आरोहण-अवरोहण की जानकारी। बिहारी का मन आज पुलकित था। उसने नर्तकी के सुन्दर पगतलों को देखकर कहा :

"पग पग मग अगमन परत, चरन अरुन दुति झूलि ।
ठौर ठौर लखियत उठे, दुपहरिया से फूलि।"

(वह चलती है तो मार्ग में एक पग आगे उसके पगों की लाली पड़ने से ऐसा लगता है, मानो दुपहरिया के फूल खिल रहे हों।)

शाहज़ादा मस्त होकर दुहरा उठा। बोला, “कविराइ! क्या उत्प्रेक्षा है! क्या पुनरुक्ति है! वाह! वाह! इतना जीवन तो मैंने कहीं देखा ही नहीं। कविराइ, तुम धन्य हो।"

बिहारी ने सलाम किया और कहा :
"कौंहर सी एड़ीनु की, लाली देखिए सुभाइ।
पाइ महावरु देइ को, आपु भई बे पांइ।।

(नाइन ने नायिका की एड़ियों में जब महावर लगाया तो वह उनकी कटैहर के फूल जैसी स्वाभाविक ललाई देखकर आश्चर्य में पड़कर अपना करम भूल गई।)

शाहज़ादा पुकार उठा, “उपमा भी कैसी। वाह! यमक भी। कविराइ, तुम धन्य हो!"
यह थी समझदारी। एक-एक बात की पकड़। कलाकार क्या करे? कहां जाए। चितेरे को कौन परखे? संगीतज्ञ को कौन सुने? कवि को कौन समझे?
वही, जिसके पास ज्ञान हो। इनके बिना इनका स्थान कहां?
बिहारी ने कहा, “नरनाथ! इस मर्मज्ञता की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जाता।"
शाहज़ादा मुस्करा उठा।
बिहारी ने कहा, “चकत्ता के घराने की सुनी बहुत थी, पर जो देखा, उससे अनुभव हुआ कि सुना कम था।"
शाहज़ादा ने कहा, 'हम आगरा जा रहे हैं कल। कविराइ! हमारी आज्ञा है कि हमारे साथ चलेंगे!"
बिहारी ने सिर झुकाकर फिर सलाम किया।

इसी समय एक बांदी हाथ में थाल लाई। वह सोने का थाल था, जिसमें अशफियां भरी थीं। ऊपर से रेशम ढका हुआ था। लाई, बिहारी के सामने रखा।

शाहज़ादा ने उसे छू लिया और कहा, "पालकी में रखवा दो। कविराइ हमारे साथ आगरे जाएंगे। मुगल दरबार में एक हीरा और बढ़ेगा।"

शाहजादा मुस्करा दिया।
एक बांदी शाही पोशाक एक थाल में ले आई।
बिहारी मुगल दरबार का कवि हो गया।
वह कोर्निश करके लौट आया।

सुशीला अवाक् बैठी रही। फिर वह रो पड़ी। हर्ष के आंसू बह निकले। वे क्या थे, वे क्या हो गए थे! आज बिहारी का नाम कौन नहीं जानता था!

आलमपनाह शाहंशाह जहांगीर का लश्कर लौट चला। उसमें बिहारी भी था, सुशीला भी। शाह का पुत्र खुर्रम जिसका रक्षक था, उसे सम्मान कौन नहीं देता!
भाग्य ने करवट बदल ली थी।

बिहारी ने कहा, “सुशील! बड़ों से ही काम बनता है। छोटों से नहीं :

"कबौं न ओछे नरन सों, सरत बड़न के काम।
मढ़ौ दमामा जात क्यों, कहि चूहं के चाम।'

(छोटों से बड़ों के काम नहीं सरते। चूहे की चमड़ी से क्या नगाड़ा मढ़ा जा सकता है?)

सुशीला ने कहा, “सच है। पर वे सब अब आएंगे खुशामद करने।"
“मुझे किसी से बदला नहीं लेना है सुशीला!'' बिहारी ने कहा, “मुझे अखण्ड साधना के लिए अवकाश चाहिए। यदि वह मुझे मिल सका तो ऐसी सुन्दरता की सृष्टि करूंगा कि लोग देखते रह जाएं।"

महत्त्वाकांक्षा का चन्द्रमा क्षितिज से उठने लगा था।

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