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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...

 

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नवाब अब्दुर्रहीम खां खानखाना उस समय 7000 सवारों के मंसबदार थे। किसी भी सरदार को इतना गौरव नहीं मिला था। वे निकट भविष्य में खिलअत, जड़ाऊ तलवार, हाथी और घोड़े स्वयं शाहंशाह से पाकर दक्षिण की सूबेदारी पर विदा होने वाले थे। उन दिनों शेरअफगन की अनिंद्य सुन्दरी बेवा मुगलों की साम्राज्ञी थी और सम्राट जहांगीर शराब के नशे में डूबे रहते थे। नूरजहां शासन करती थी।

खानखाना प्रसिद्ध दानी थे, महाकवि थे। अनेक भाषाएं जानते थे। इनके यहां बड़े-बड़े विद्वान पड़े रहते थे। इतिहास लेखक अब्दुलशकी, मल्ला नज़ीरी नैशापुरी, ख्वाजा सैयद ‘उर्फी', अनीसी शायल्द, मीर मगीस याहवी हमदानी, अमीर रफीउद्दीन हैदर 'राफेई' काशनी, काशी सब्जवारी, फाहिमी उर्मिज़ी, मुल्ला महम्मद रज़ा 'नबी', तबरेजी, सामरी, दाखिली इस्फहानी इत्यादि अनेक फारसी-अरबी के विद्वानों को खानखाना ने भूरि-भूरि दान दिया। गंग को इन्होंने एक छप्पय पर 36 लाख रुपया दिया था, यह कौन नहीं जानता था। भारतीय कवियों में आसकरन जाडा, केशवदास, हरनाथ, मंडन प्रसिद्ध अलाकुली, तारा, मकुन्द इत्यादि उनके प्रशंसक थे। स्वयं गोस्वामी तुलसीदास ने उनकी मित्रता थी। वे संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे और कृष्ण के प्रति कविता लिखते थे। हंसोड़ इतने थे कि एक दिन राजा टोडरमल से यह शर्त लगाकर शतरंज खेलने बैठे कि जो हारे सो जानवर की बोली बोले। हुआ यह कि स्वयं हार गए। खानखाना टालमटोल करके उठने लगे, मगर राजा साहब कहां छोड़नेवाले थे। झट वस्त्र पकड़कर खींचकर बोले, “पहले आप बिल्ली की बोली बोल जाइए, तब ही जाइए।' खानखाना ने फारसी में कहा, 'मीआयम् मीआयम् मीआयम् अर्थात् आता हूं, आता हूं, आता हूं।' राजा साहब भी यह सुनकर हंस पड़े। यह किस्सा सब जगह प्रचलित था।

खानखाना के पिता बैरामखां ने सिंध से बंगाल तक अपने भुजदण्डों से हिन्दुस्तान जीतकर अकबर को गद्दी पर बिठाया था। स्वयं खानखाना भी साम्राज्य में बहुत ही प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। स्वर्गीय अकबर शाह ने उन्हें खानखाना की पदवी ही थी। आज भी वे उसे निभा रहे थे। अत्यन्त सुन्दर देह और विशाल हृदय! वे अपनी मर्मज्ञता के लिए विख्यात थे।

बिहारी से मुगल दरबार में मिले तो अपने यहां आने का निमंत्रण दे दिया। उस दिन सुन्दर और दूलह तथा पंडितराज जगन्नाथ भी निमंत्रित किए गए।

बिहारीलाल प्रसिद्ध हो चुके थे। उनकी तरुणाई देखकर ईर्ष्या और विद्वेष दोनों ही होते थे। वैसे बिहारी में सुशीला को कोई परिवर्तन न दिखाई पड़ा। अब भी वह वैसे ही लिखता था। किन्तु अभाव का अब नाम नहीं था। मुगल दरबार से वृत्ति बंध गई थी।

आजकल जहां आगरे के किले के बाहर वाटरवर्क्स को जाने वाली सड़क है, और उसके पास जो टीले हैं, एक जमाने में उन टीलों की जगह मकान बने हुए थे, जहां अमीर-उमराव रहते थे। वहां कई हवेलियां थीं, जिनमें राजा-महाराजा आकर ठहरा करते थे, क्योंकि दिल्ली अक्सर आना पड़ता था। यह हवेलियां राजाओं की अपनी होती थीं। यहीं बिहारी ने एक हवेली बना ली और रहने लगे।

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