| जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
 | 
			 147 पाठक हैं | ||||||
कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
      कपड़े पहनते समय सुशीला आ गई।
      बोली, “जा रहे हो?"
      “आज खानखाना ने निमंत्रण दिया है न?"
      रेशमी वस्त्रों, सोने, हीरे और मोतियों से सुशीला के रूप पर आंखें नहीं ठहरती
      थीं। सेवक-सेविकाओं पर उसकी कृपा दृष्टि रहती।
      बोली, “वहां तो कई कवि आएंगे।"
      "हां," बिहारी ने कहा। फिर कहा, “रसों में रस तो शृंगार है सुशील!"
      “सो तो है," सुशीला ने कहा, “पर कहीं मुझे भूल न जाना। एक से एक बढ़कर
      सुन्दरी हैं यहां, इसमें तो वह छोटी दुनिया ही भली थी, जहां मुझे कोई डर तो न
      था। किसी और को तो नहीं ले आओगे!"
      
      "क्या कहती हो!" बिहारी ने कहा, “ऐसा तुम मेरे बारे में सोच सकती हो!"
      "वह कौन थी जो कल मुजरा करने आई थी?"
      "वह वेश्या है सुशील! तुम कुल नारी हो, घर की शोभा हो। सुन्दर बांदियां तो
      रखनी ही पड़ती हैं।
      "जानती हूं, पुरुष को सब कुछ चाहिए, मैं मना नहीं करती। ऐसा कौन नहीं करता।
      स्त्री को तो यह आदत होनी ही चाहिए कि यह सब देख सके।
      लेकिन मैं कुछ और सोचती थी।"
      "क्या भला?"
      "इस धन का अन्त क्या होगा। तुम तो बाहर रहते हो, या लिखते हो, मैं अकेली ऊब न
      जाती होऊंगी?"
      “ऊब जाती हो? तुम भी पढ़ो न? विदूषियां क्या कम होती हैं!"
      "पर मेरे भीतर देने वाले ने बुद्धि नहीं दी, तो क्या करूं। सब ही तो एक-से
      नहीं हो जाते!"
      "फिर?"
      "सोचो!"
      "कुछ तुम भी तो कहो।"
      “वैद्य जी से कोई दवा मंगाते। एक साधू आए हैं वे कुछ तावीज-सा देते हैं।"
      बिहारी हंसा! कहा, “क्या चक्कर है यह भी। अभी तुम्हारी उम्र तो नहीं निकल गई
      :
      
      
      
कवि अंकन के अरथ लौं, प्रकट दिखाई देत।।"
(उरोज सीधी-सादी सफेद रंग के सुगंधित चोली में नहीं छिपे रह पाते, वे तो ऐसे प्रकट होते हैं जैसे कवियों की कविता के अक्षरों में से उनका अर्थ प्रकट होता है।)
वह लजाकर बोली, “धत् ! कोई अपनी पत्नी से ऐसी बात करता है! मैं तुम्हारी ब्याहता हूं।"
बिहारी हंस दिया। बोली, 'यह तो दरबारी और बाहरी महफिलों के लिए रखो।"
| 
 | |||||

 
 
		 





 
 
		 
 
			 

