जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
फिर सांस लेकर बोली, “न जाने भगवान कब सुनेंगे।"
"मुझे तुम्हारी जरूरत है, सुशील, सन्तान का दुख मुझे नहीं है। मेरी सन्तान
मेरी कविता है।"
"लेकिन मुझे तो चाहिए।"
"भगवान से प्रार्थना करो। राधा जू सब सुनेंगी।फिर कहा, "दुख क्यों करते हो?"
फिर बात टालने को कहा, "जानती हो, लोग क्या कहते है ?"
उसने आंखें उठाईं।
"कहते हैं, यह लक्ष्य और लक्षण काव्य नहीं लिखते।"
"लिखो न?"
"यह कविता नहीं होती सुशील । केवल परिपाटी का निर्वाह होता है। कविता है
सौन्दर्य का वर्णन। मनुष्य के हाव-भाव अनुभाव संचारी का वर्णन है। रूप की
साक्षात् प्रतिमा नारी का सम्पूर्ण विवेचन। प्रकृति और धर्म की वह मार्मिक
व्याख्या जो हृदय को सरस कर सके। सुशील! मैं इस सब में डूबकर अपने आपको भूल
जाना चाहता हूं। आज तक जो भाषा में किसी ने नहीं किया, मैं वह करना चाहता
हूं। मेरे दोहों में जो गठन है उसे दिल्ली से आगरे तक सब मुक्त कंठ से
स्वीकार करते हैं। न न्यूनपदत्व, न अधिकपदत्व।"
सुशीला समझी नहीं। बोली, "तो फिर कहो न?"
"पूछो।"
"तुम्हें तो सदा कविता रहती है। मैं जाऊंगी।"
"कहां?"
"साधु के पास। मुन्दर कहती है बड़े पहुंचे हुए जोगी हैं। कइयों की गोद भर दी
है।"
“अच्छा, बांके को ले जाना।"
बिहारी चल पड़ा।
आज वह खानखाना के यहां जा रहा था जिनकी किंवदंतियां प्रसिद्ध थीं। कहा जाता
था कि एक बार एक दरिद्र ब्राह्मण खानखाना की ड्योढ़ी पर पहुंचा।
और उसने भीतर खबर भिजवाई कि खानखाना का साढ़ू आया। खानखाना ने उसे भीतर
बुलवाकर उसका खूब आदर-सत्कार किया और अच्छी तरह धन देकर उसे विदा किया। जब वह
चला गया तो किसी ने पूछा, 'यह गरीब आपका साढ़ू कैसे हो गया?' खानखाना ने
मुस्कराकर कहा, 'सम्पत्ति की बहन विपत्ति होती है। एक मुझे ब्याही है, दूसरी
इसे, इसी से यह मेरा साढ़ू है।'
बिहारी पालकी पर सवार हो गया। कहार चल पड़े। प्यादे आगे-पीछे थे। बिहारी को
याद आया। यह किस्सा उसने हाल ही में सुना था कि एक दिन दरिद्र भूखा ब्राह्मण
मुसलमानों को कोस रहा था और कहता था कि इन्हीं लोगों के राज्य के कारण वह इस
तरह भूखा पड़ा था। और कोई उसकी मदद नहीं कर रहा था । खानखाना ने उसका कोसना
सुनकर कहा, 'भैया! हमें बख्शो, हम पर दया करो। तुम्हें खाना-पीना बहुत मिल
जाएगा।' प्रसन्न हो गया। उसने अपनी फटी-पुरानी मैली पगड़ी खानखाना पर फेंक दी
और बोला, 'शास्त्र कहते हैं कि जब तुम किसी की बात पर प्रसन्न हो जाओ, तो
अवश्य ही उसे कुछ देना चाहिए। मेरे पास और कुछ नहीं है, इसलिए यही दिए देता
हूं।' खानखाना ने उस पगड़ी को ले लिया और उसे बहुत धन दिलवाया।
ऐसे खानखाना से वह मिलने जा रहा था।
खानखाना के बाल सफेद थे। दाढ़ी भी सफेद थी। वे साठ से ऊपर थे अत्यन्त
मिलनसार। हंसमुख।
जब बिहारी ने विशाल प्रकोष्ठ में प्रवेश किया, देखा वहां कई लोग थे। सुन्दर,
दूलह, पण्डितराज जगन्नाथ, हरनाथ और कई अन्य कवि थे।
बिहारी भी वहीं बैठ गया। खानखाना ने इत्र से उसका स्वागत किया।
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