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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...


महामात्र नरहरि के पुत्र हरनाथ अत्यन्त उदार थे। एक बार आगरे के स्वर्गीय महाराज मानसिंह को इन्होंने जाकर एक दोहा सुनाया :

बलि बोई कीरित लता, कर्ण दियो द्वै पात,
सींच्यो मान महीप ने जब देखी कुम्हलात ।


महाराज मानसिंह ने प्रसन्न होकर उस समय इन्हें एक लाख रुपया इनाम दिया। यह घर लौट रहे थे कि मार्ग में इन्हें एक कवि मिल गया। उसने इन्हें देखकर दोहा कहा :

दान पाय दो ही बढ़े, की हरि की हरिनाथ,
उन बढ़ि नीचे कर कियो, इन बढ़ि ऊंचो हाथ ।


हरनाथ विभोर हो उठे। उन्होंने राजा मानसिंह से पाया हुआ सारा रुपया उसी को दे डाला।

आज उन्हींने कहा, “एक विनय है।"
सबकी आंखें उनकी ओर केन्द्रित हो गईं।
हरनाथ ने हाथ उठाकर सुनाया :

"बैरम के तनय, खानखाना जू के अनुदिन,
        दोउ प्रभु सहज सुभाए ध्यान ध्याये हैं,
कहै 'हरनाथ' सातौं दीप को दिपति करि,
        जोह खंड करताल ताल सों बजाए हैं।
एतनी भगति दिल्ली पति की अधिक देखी
        पूजत नए को भास तातें भेद पाए हैं,
अरि सिर साजे जहांगीर के पगन तट,
        टूटे फूटे फाटे सिव सीस पै चढ़ाये हैं।"


वाह-वाह की रट लग गई। जब वह साधुवाद कम हुआ खानखाना ने विनम्रता से उन्हें एक लाख रुपया भेंट किया। वृद्ध हरनाथ चले गए।

उनके जाने पर क्रमशः कविताएं सुनाना प्रारम्भ हो गया। देर तक यही परस्पर प्रशंसा का मर्मज्ञ-क्रम चलता रहा। बिहारी ने नीति के दोहे सुनाए। किन्तु शीघ्र ही नख-शिख वर्णन प्रारम्भ हो गया। सुकवि बिहारी पीछे नहीं रहा। अखण्ड विलास का वर्णन होने लगा।

धीरे-धीरे संध्या हो गई। सुन्दरी बांदियां कंदीलों, फानूसों और कंवलों को जला गईं। प्रकोष्ठ में सतरंगा प्रकाश स्वप्न लोक-सा फैल गया।

बिहारी रहीम से मिलकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ।
जब चलने की बेला आई उसने कहा, “आज्ञा हो तो एक..."
"हां, हां..." सब ने कहा।

खानखाना की ओर उन्मुख होकर बिहारी ने कहा, “आज तक जो सुना था वह सच ही था। ऐसे प्रतापी के दर्शन किए, मन गद्गद हो गया। आज्ञा दें कि कभी-कभी दर्शन कर सकूँ।"

“आया करो!" खानखाना ने कहा, "तुम्हारा घर है। तुम नौजवानों से मुझे बड़ी प्रीति है। मैं तो अब बूढ़ा हो चला हूं।"

यह सब कहते समय उनके मुख पर एक प्रतिष्ठित और पुराने कवि होने का गौरव छलक आया। यह नम्रता भी नई पीढ़ी को बढ़ावा देने वाली थी।
बिहारी ने प्रसन्न होकर कहा, “सच, आप ज्ञान के अक्षय भंडार हैं। मैं क्या कहूं :

"गंग गौंछ, मौछैं, जमुन, अधरन सुरसति राग।
प्रगट खानखाना कैं कामद बदन प्रयाग।
गलमुच्छ गंगा, मूछे जमुना। अधर सरस्वती राग।
    (खानखाना में कामनाओं का पूर्ण करने वाला प्रयाग प्रकट हुआ है।)

चारों ओर कोलाहल मच उठा। हर एक बिहारी पर रीझा जा रहा था।
खानखाना की आंखों में आंसू आ गए। तुरन्त ही उनकी आज्ञा से बिहारी को बिठाकर स्वर्ण मुद्राओं से ढक दिया गया।
जब सुशीला ने देखा तो आश्चर्य से देखती रही और बोली, “सच! तुम इतने बड़े कवि! तो मुझे कुछ क्यों नहीं समझाते?"
बिहारी ने कहा, “ज़रा मेरी ओर देखो!"
उसने देखा।

बिहारी ने कहा :
 
"रस सिंगारु मजनु किए, कंजनु भंजनु देन।
अंजन रजनु हूं बिना खंजनु गंजनु नैन।"

शृंगार रस में निमग्न तेरे ये कटाक्ष दक्ष नयन कमलों का भी गर्व हरते हैं। अपनी श्यामलता के कारण ये अंजनहीन भी खंजन पक्षी का अपमान करते हैं।
वह लजाकर आंखें ढंककर बोली, "मैं तुम्हारी घरवाली हूं। तुमने मुझे समझ क्या रखा है!"

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