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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...

   

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तोपों का भीमनाद गूंजा। आगरा शहर हिल उठा।
प्रतिध्वनि ने सारे वातावरण में एक घोष भर दिया। लोग एक जिज्ञासा से पूछ उठे, “आज क्या है?"

आज शाहज़ादा खुर्रम की बेगम अर्जुमन्दबानू ने पुत्र को जन्म दिया था।
चारों ओर उल्लास की लहरें फैलने लगीं।

यही पुत्र था जो दाराशिकोह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। लोग कहते थे कि अवश्य ही वह भाग्यशाली था, क्योंकि प्रत्येक ज्योतिषी दान लेता हुआ यही कह रहा था।

जमुना पर नावें तेजी से आने लगीं। गांववाले साग-भाजी लाने लगे। घी के पीपे नावों पर रखकर वे शहर में बेचने चल पड़े क्योंकि बहुत बड़ी दावत होनेवाली थी। सारे साम्राज्य में ही उथल-पुथल थी।

भेंटों का अम्बार लग गया। महल भर चले। और आशीर्वादों का तो ढेर लग गया। शाहज़ादा खुर्रम अपने पिता और विमाता किन्तु साम्राज्ञी नूरजहां का प्रिय पुत्र था। उसकी योग्यता सर्वत्र प्रसिद्ध थी।

दान होने लगा। भीडें टूट पड़ीं। चांदी और सिक्के प्रजा में लुटाए गए। कैदी छोड़ दिए गए और बहुत-से गरीबों की मुरादें पूरी हुईं। साम्राज्य के रखवालों की नई पीढ़ी आ गई थी। दाराशिकोह उनमें सबसे पहला था।

बिहारी ने भी शाम को दीपक जलवाकर घर का चेहरा जगमगा दिया। सारा शहर जगमगा रहा था, गलियों में भी उजाला था और बाजार में वेश्याओं के अट्टों से प्रकाश बाहर बह रहा था, जिनको गीतों की लहरियां पकड़ने की चेष्टा कर रही थीं।

बाजों की प्रतिध्वनित आवाज़ महलों के बाहर निरन्तर गूंज रही थी। आगरे के किले में उस समय कुल 75 या 80 राजवंश के लोग रहते थे। और दस हजार सेविकाएं, सेवक तथा जनखे थे। उनके साथ कुबड़े भी हंसी-मजाक के लिए रखे जाते थे।

रावतपाड़े से किले के सामने की महत्त्वपूर्ण शक्ति रखने वाली पानवाली की दूकान तक चहल-पहल थी। आज पानवाली के पान की कीमत एक अशर्फी थी। इस स्त्री की हरम में पहुंच थी।

गोकुलपुर से कन्धारी तक लोगों के ठट्ठ गांवों से आ-आकर गा रहे थे, नाच रहे थे। घाटी आजमखां के थोड़े-से घरों के लोग रात को अच्छी तरह सो नहीं पाए, क्योंकि आसपास के जंगल में रात को सवार घूमते रहे। दिल्ली दरवाजे में सिपाही बैठे ऊंघते रहे।

नूरजहां प्रसन्न थी। वह खुर्रम को योग्य समझती थी। उसने भी आज दान-दक्षिणा में कसर नहीं रखी थी।

बिहारी ने अपना दुपट्टा उठाया और माथे पर आए झूलते केशों को पीछे करके सिर पर जरी और रेशम की पगड़ी धरी और दर्पण में मुख देखा। उसने मुड़कर देखा क्योंकि दर्पण से उसे सुशीला की परछाईं दिखाई दी।

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