जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
सुशीला के मुख पर एक उदासी की-सी छाया थी। वह समझा नहीं। बोला, "सुशील!"
वह नहीं बोली।
बिहारी कहता रहा, “चारों ओर कैसा हर्ष छा रहा है!" सुशीला के मौन पर ध्यान न
दे वह बोला, “सुनती हो।"
"हां।"
वह मुड़ा।
"क्या बात है?"
"कुछ तो नहीं है।"
सुशीला ने मुंह फिरा लिया।
"तुम कुछ मुझे उदास-सी लगती हो!"
"नहीं तो।"
"फिर चुप क्यों हो?"
जब से बिहारी का समय बाहर अधिक बीतता बिहारी को घर पर कम समय मिलता। पहले
बिहारी उसका था, अब वह बाहर का भी था। सुशीला को
समय कम मिलता था। वह एक दूरी का अनुभव करती थी।
"कहती नहीं?"
"कहूं क्या? आज प्रसन्नता की बात है। राजकुमार का जन्म हुआ है। जिनकी गोद
भरती है, वह कितनी भाग्यशालिनी होती हैं।"
बिहारी ने कहा, “तुम भी व्यर्थ की चिंता करती हो।' वह उसकी व्यथा को समझ गया
था। वह अपुत्रा थी।
परन्तु उसने कुछ कहा नहीं।
सुशीला चुप खड़ी रही।
बांके ने आकर आतिशबाजियों का वर्णन करना प्रारम्भ किया। उसका कहना था कि उसने
कभी ऐसा देखा ही नहीं था। दिन में तारे छिटक रहे थे। कोई-कोई धूरगोला तो
बिलकुल फूल की तरह खिल जाता था।
उसके स्वर में आवेश था।
हंसकला बांदी भीतर गा रही थी। वह सुन्दरी थी। बिहारी को वह अत्यन्त भाती थी,
क्योंकि उसका स्वर बहुत मीठा था। वह बड़ी संस्कृत थी। बिहारी
उसका गीत सुना करता था।
बिहारी चलने को तैयार हुआ।
सुशीला भीतर चली गई।
बिहारी रथ पर चल पड़ा। झालरों के नीले रेशमी पर्दे थे और भीतर गद्दे पड़े थे।
घोड़े चलने लगे। धीरे-धीरे, क्योंकि सड़क पर काफी लोग आ-जा रहे थे। आज केवल
दरबारी लोगों को ही सवारी पर जाने की इजाज़त थी। बाकी लोगों
के बाहन बाहर ही छोड़ दिए गए थे।
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