जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
आगे प्यादे भाग रहे थे। पीछे वाले घोड़ों पर थे। वे रास्ता साफ करते जाते थे।
बिहारी के वस्त्रों से इत्र की मादक गन्ध आ रही थी। आज उसने शाहज़ादा खुर्रम
का दिया हार भी पहन रखा था।
बिहारी ने जाकर द्वार पर इत्तला करवाई।
चोबदार भीतर चला गया।
लौटकर बोला, “आइए।"
बिहारी भीतर घुसा और देखा कि दीवाने-आम में लोग पहले से मौजूद थे।
वह उधर ही बढ़ चला।
शाहज़ादा खुर्रम आज बाहर ही था। उसके आसपास अमीरों की भीड़ खड़ी थी। उनके
हीरों पर नज़र नहीं ठहरती थी।
चोबदार आगे चलता रहा।
किले का भीतरी फाटक पार करके सैनिकों के आगार पार करके जब बिहारी दीवाने-आम
के सामने पहुंचा, खुर्रम ने उसे देख लिया।
एक ओर मौलवी और दरवेश लोग धार्मिक ग्रन्थों का निरन्तर पाठ कर रहे थे।
वातावरण में उसके कारण कुछ विचित्रता थी।
अपना रंग और तूली लिए कुछ चित्रकार सबियां ले रहे थे।
एक दूसरी ओर फारसी के शायर एक कालीन पर बैठे हुए अमीरों की तरफ इज्जत से देख
ले थे।
शाहज़ादे ने बिहारी को कोर्निश करते देखा और वह मुस्कराया।
बिहारी आगे बढ़ा। बोला, “विनय है कि आज का दान देखकर एक सूम की याद आती है।"
खुर्रम ने कहा, “सूम की याद?"
बिहारी ने कहा, "श्रीमन्त महाराज! कैसे न उसकी छाती फटती होगी?"
"सूम कैसा होता है?"
बिहारी ने कहा-
बढ़त जात ज्यों ज्यों उरज, त्यों त्यों होत कठोर।"
सूम के पास ज्यों-ज्यों संपत्ति आती है उसकी सूमता वैसे ही बढ़ती है जैसे स्त्री के उरोज बढ़ते हुए कठोर होते जाते हैं।
खुर्रम प्रसन्न हो उठा। एमदम नई उपमा थी। ऐसा दृष्टान्त कि उसकी विलास वृत्ति को सहारा मिला।
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