जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
दोहा शीघ्र फैल गया।
उस दिन शहरयार वहीं था। उसने भी 'वाह-वाह' की।
इनामों से बिहारी लद गया।
सारे कवि देखते रह गए कि यह सबके कान काट गया। बिहारी सीख गया था कि धनिकों
का मन किन बातों से सरस हो प्रसन्न हो उठता था।
जब वह घर पहुंचा सुशीला खाना ले आई।
बिहारी खाने बैठा
वह वहां का वर्णन करता रहा।
सुशीला सुनती रही।
"क्यों? कैसा विचार है?" उसने अन्त में कहा।
सुशीला मुस्करा दी।
"विलास से बहुत प्रसन्न रहते हैं, वे लोग। जानती हो बेगमें और रानियां भी
मेरी कविता को बहुत पसन्द करती हैं।"
किन्तु सुशीला की चिन्ता ही दूसरी थी।
"पुत्र!" उसने कहा, “पैदा हुआ है। क्यों न तुमने उस पर कोई कविता कही?"
'मैं वही कहता हूं जो मेरे मन में आता है। मैं कवि हूं, तुकबन्द ऐसे तो वहां
बहुत थे।"
बिहारी कुछ और सोचने लगा था।
"कहां से आए पुत्र जो सुशीला प्रसन्न हो।"
हठात् एक ध्यान आया।
बोला, "सुनो, एक बात कहूं?"
"कहो।"
'सोच लो!"
“गोद ही लेने की कहोगे।" सुशीला जाने कैसे समझ गई।
"तुम कैसे समझीं?"
"मैं तुम्हें जानती हूं। पर लोग क्या कहेंगे। अभी उमर ही क्या है! सब ही
कहेंगे कि अभी से क्या जल्दी थी।"
"फिर"
वह शरमा गई।
"तो जाने दो।"
वह हंस दिया।
"तुम हंसते हो!" उसने कहा।
"और मैं क्या करूं?" बिहारी ने उत्तर दिया।
सुशीला मानो घुट गई।
अब राजधानी में भीड़ बढ़ने लगी।
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