जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
आए दिन नए-नए अतिथि आने लगे। रियासतों से राजा लोग अपने वैभव का प्रदर्शन
करते हुए राजधानी में पधारने लगे। उनके साथ उनके सेवक होते, सेनाएं भी होती
और वेश्याएं भी आतीं। चारों ओर कोलाहल ही कोलाहल गूंजने लगा।
हाथी झूमने लगे। उनके गलों में घंटे बंधे रहते, वे बड़े-बड़े रोट खाते और जब
ऊब जाते तब उन्हें पैरों से लुढ़का देते। फीलवान उस बचे-खुचे को या तो लोगों
को बेच देते, या फेंक देते। हाथियों की चिंघाड़ें गूंज उठतीं।
घोड़े हिनहिनाते। एक-से-एक बढ़कर घोड़ा था। कोई पंचकल्याण, कोई कुम्मेत, कोई
अबलग। न जाने कितनी किस्में थीं। साईस उनकी मालिशें करके
उनकी फरफराती खालें चमकाया करते।
दुकानें बढ़ गईं। अब नए-नए दुकानदार भी आ गए और बाजार बढ़ता चला गया। ढाके की
मलमल, कशमीर के कालीन, मुरादाबाद के बर्तन और आगरे की ज़री की चीजों के
अम्बार लग गए।
चित्रकार दूर-दूर से आने लगे। वे अनेक चित्र लाते। कई तो काम-शास्त्र से ही
भरे पड़े थे। कई में देवी-देवता चित्रित थे। कई रईसों और बादशाहों की
तस्वीरें थीं। दूतियों का काम बढ़ गया।
गलीचे, दुशाले, पटुके, चुनरी, ओढ़नी और तरह-तरह के रंगीन वस्त्र दुकानों पर
टंगे रहते। बनियों को फुर्सत नहीं थी। उनसे तूरानी कर वसूल करने वाले नकद
वसूल करते फिरते।
लकड़ी का काम बड़ी ही नफासत से करनेवाले कारीगर अपना सामान बिछाए आ बैठे। एक
तरफ तरह-तरह की नक्काशी वाली किवाड़ों की जोड़ियां बिक रही थीं, जिन पर
राधाकृष्ण बने रहते।
रंडियों का हुजूम चौराहों पर नाचता। भाड़ तरह-तरह के लोगों को हंसाते, रईसों
को सलाम करते और इनाम पाते। उनके मजाकों से रंडियां होड़ करतीं।
नटों, कलाबाजों का दूसरा ही महकमा था। रस्सी पर नटनी चलती, लोगों की निगाहें
अटक जातीं। फिर पटेबाजों की तलवारें खटकतीं। लोगों को लगता
कि कोई एक तो जरूर मर जाएगा पर जिस्मों पर दाग तक नहीं लगते। उधर बाजीगर अपने
जमूरों को पुकारते सुनाई देते और ऊंट काले, भूरे एक ओर इकट्ठे होते तो दरवेश,
जोगी, साधू, फकीर दूसरी ओर। उन दिनों मुगल हिन्दु-मुसलमान का भेद नहीं करते
थे। हिन्दुओं में लोग प्रायः प्रसन्न थे जजिया की बात पुरानी पड़ चुकी थी।
सभी गरजमन्दों को दान मिलता। बेगमें और रानियां सभी को एक-सी खैरात लुटातीं।
शाहज़ादा खुर्रम ने बिहारी को बुलाकर, “कविराइ!"
बिहारी ने कोर्निश की।
"देख रहे हो, कितना काम बढ़ गया है।"
“जो हुक्म साहबेआलम," उसने कहा।
"हम चाहते हैं कि आप खुद राजाओं को खुश करें। और यह सब ऐसा हो कि हुआ न हो।
आपकी खिदमत में कौन रहे, यह खुद चुन लें।' खुर्रम ने फिर कहा, “आप जैसा चतुर
व्यक्ति ही इस योग्य है। आप कुछ अर्ज करना चाहते हैं। इजाजत है।"
"जो हुक्म।" बिहारी ने कहा, "कहते हैं, पहले मन्त्री बीरबल थे। लेकिन
साहबेआलम उनकी-सी हाजिर-जवाबी मुझमें कहां?"
'आप कवि हैं।"
"हुजूर मुझे कविता सुनानी पड़ेगी?',
खुर्रम ने अधमुंदी आंखों से देखा और सिर हिलाया।
"जरूर!" बिहारी ने कहा, “जो कर सकूँगा उठा नहीं रखूगा।"
"हम खुश हैं।" शाहज़ादा ने ताली बजाई। पर्दा हिला। शाहज़ादा मुस्कराया।
"देखिए!"
द्वार पर छम्म की आवाज गूंजी।
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