लोगों की राय

जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

147 पाठक हैं

कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...


बिहारी ने आंखें उठाईं। शाहज़ादा प्रसन्न था।
बिहारी ने देखी-चन्द्रकला!
अनुपम सुन्दरी वेश्या। वह अपने सारे शृंगार किए खड़ी थी। देखता रहा। शाहज़ादा मुस्कराया।
एक बार को आंख झुक गईं।
"यह हम तोहता देते हैं। इसलिए कि आपकी कविता में कंचन-सा निखार आए।"
बिहारी ने चन्द्रकला को देखा।
उसने धीरे से कहा, "यह बोझ तो किसी राजा से ही झिलेगा हुजूर, मैं तो गरीब ब्राह्मण हूं।"

"हम आपको हाथी देते हैं कि वह इसे झेल ले। उसकी तरफ से आप चिन्ता न करें।" खुर्रम हंसा, “बस इतनी-सी बात!"
बिहारी इसका उत्तर नहीं दे सका।
"चन्द्रकला," खुर्रम ने कहा, “दक्ष है। चतुर है। प्रवीण है।"
चन्द्रकला आ गई।
बिहारी आ गया। साथ में आई चन्द्रकला।
बावन राजा धीरे-धीरे आ इकट्ठे हुए। बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, और न जाने कितने। और होड़ करके भेंट लाए। उनको खिलअतें बंटनी थीं। उनका वैभव एक से एक बढ़कर था।

पूरा शहर-सा जम गया। अब कलावन्तों के स्वर रुकते न थे। महफिलों में चौबीस घंटे राग-रागनियां गूंजतीं। किसी को भी कमी नहीं रही। जहां सामन्त था,  वहीं ललित-कला थी। लोक की अपरिष्कृत कला इस कला से काफी दूर थी।

बिहारी का समय यहीं व्यतीत होता। वह राजाओं से मिलता, उन्हें कविताएं सुना देता। उसकी कद्र थी। क्योंकि वह शाहज़ादा खुर्रम का मुंहलगा था। कुछ लोग उससे जलते भी थे, किन्तु बिहारी मूर्ख नहीं था। किसी से भी बिगाड़ न करता।

घर पहुंचा तो सुशीला ने कहा, “आजकल बहुत काम में लगे हो।"
"हां, बावन राजा हैं, सुशीला!"
"फुर्सत नहीं मिलती!"
"देखती तो हो!"
पहले सौहार्द्र था। सुशीला के मन में पीड़ा हुई। आज क्या हो गया। वही स्वामी हैं पर आज उसे पहले-सा सौहार्द नहीं मिला।

लौट गई।
सोचा, इसका कारण?
याद आया, चन्द्रकला! मेरी सौत!
वह एकान्त में रोई।
पर मन को धैर्य दिया। सब अमीर रण्डियां रखते हैं। बिहारी में ही क्या दोष है। नहीं, उसे ऐसी मूर्खता नहीं करनी चाहिए। कोई सुनेगा तो उसी पर तो हंसेगा।
मर्दाने में चन्द्रकला आई थी अपने कक्ष से। बिहारी पास बैठा था। पता नहीं वे क्या बातें कर रहे थे। सुशीला पति की ओर चल पड़ी। किन्तु भीतर स्वर सुनाई दिया।
सुशीला ने झांककर देखा। लगा, बिजली का तार देह से छू गया। एक दिन इस देह पर केवल उसी का अधिकार था। किन्तु क्या यह व्यर्थ की बात ही नहीं सोच रही थी?
वह लौट आई।
बिहारी चला गया। उसने उसका रथ जाते हुए अपने झरोखे से देखा। कितना व्यस्त था अब बिहारी । उससे राजा के कितने बड़े-बड़े आदमी मिलने आते थे। स्वयं सुशीला की खुशामद में कितनी स्त्रियां आती थीं। सुशीला उन्हें कितने इनाम बांटती! आज वे कहां उठ गई थीं! वह आगे सोच न पाई।
महाराज जसवन्तसिंह अपनी हवेली में टिके हुए थे। वे जोधुपर के महाराज थे। उनकी महलनुमा हवेली आगरे में बनी थी; जब कभी वे आते, तब उसमें ठहरते। यह हवेली शाहंशाह अकबर के जमाने में बनी थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book