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			 जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
      ड्यौढ़ी पर बिहारी ने इत्तला कराई। सिपाहियों ने सलाम किया।
      चोबदार भीतर चला गया।
      बिहारी ने सिपाहियों को इनाम दिया। समा बांधना ही था, बंध गया।
      शीघ्र ही खबास ने आकर कहा, "आइए, महाराज!"
      ब्राह्मण सदा ही ठाकुरों के यहां 'महाराज' कहलाते थे।
      चोबदार पीछे हट गया। खबास आगे मार्ग दिखाता चला।
      बिहारी भीतर गया।
      कमरा बहुत ही सजा हुआ था। सूरत से फिरंगी व्यापारियों के जहाजों में आई
      विलायत की नायाब चीजें भी उनके यहां रखी थीं। सर्वत्र सुगन्ध फैल रही थी।
      वैद्यजी बैठे कुछ नुस्खा लिख रहे थे। वे गम्भीर थे और उन्होंने एक बार बिहारी
      की ओर देखा। बिहारी भी मुस्कराया। वह आगे बढ़ा। महाराज जसवन्तसिंह पलंग पर
      अधलेटे थे।
      महाराज जसवन्तसिंह हंसे। बाले, “कविराइ हैं?"
      बिहारी ने प्रणाम किया। महाराज ने भी प्रणाम किया। एक राजा था, दूसरा
      ब्राह्मण।
      बिहारी ने फिर प्रणाम किया। महाराज प्रसन्न हो उठे।
      वैद्यजी से परिचय कराया।
      कहा, "बिहारीलाल।"
      बिठाया और बोले, "आपने सुना होगा?"
      "कौन नहीं जानता!” वैद्यजी ने कहा, “वैद्यों पर तो कविराइ व्यंग्य ही कर चुके
      हैं।"
      वैद्यजी हंसे।
      महाराज जसवन्तसिंह ने कहा, “आप क्यों डर रहे हैं, आप तो वैसे नहीं।"
      बिहारी ने कहा, “महाराज की इस अबुद्धि में भी इतनी प्रीति है, जानकर आभारी
      हुआ। मेरा काव्य ही क्या?"
      वैद्यजी ने कहा, “ऐसे दोहे आज तक किसने लिखे? हमने बहुत पढ़ा, पर आपमें तो
      वैद्यों का-सा चमत्कार है।"
      			
						
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