जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
महाराज जसवन्तसिंह ने कहा, “कुछ सुनाएं!"
बिहारी ने कहा, “अपने बारे में कहूं महाराज? मैं अपात्र हूं। अपने से कहता
हूं :
गोधन तू हरष्यौ हियै, घरियक लेहि पुजाइ ।
समुझि परैगी सीस पर, परतु पसुनु के पांइ।"
समुझि परैगी सीस पर, परतु पसुनु के पांइ।"
ओ गोवर्द्धन! घड़ी-भर तू पूजा करवा ले, प्रसन्न हो ले, पर जब फिर तुझ पर पशुओं के पांव पड़ेंगे तब तू असलियत जान पाएगा।
दोनों वाह-वाह कर उठे। परन्तु यह प्रशंसा और ही प्रकार की थी।
बिहारी ने देखा, असर पूरा नहीं हुआ क्योंकि अभी तक महाराज के हाथ कुछ देने के लिए लालायित नहीं हुए थे। वह कवि क्या जो कि दाता को स्वयं
ही विचलित न कर दे।
उसने कहा :
"यह विनसतु नगु राखि कैं जगत बड़ौ जसु लेहु।
जरी विसम जुर ज्याइये आइ सुदरसन देहु।'
जरी विसम जुर ज्याइये आइ सुदरसन देहु।'
एक सखी नायक से कहती है, “नष्ट होते रत्न की रक्षा करके तुम यश ले लो।
विसमज्वर-पीड़ित नारी को दर्शनरूपी चूर्ण देकर बचा लो।"
वैद्यराज बोले, “लोलिम्बराज! लोलिम्बराज!" "
महाराज फड़क उठे। बोले, “वाह! वैद्यराज! क्या बात है!"
"सुदर्शन! वाह! क्या निभाया है!"
बिहारी ने प्रणाम किया।
बोले, “और सुनाओ कविराइ।"
बिहारी मुदित हुआ। कुछ असर पड़ा है। उसने फिर सोचा और कल्पना कौंध गई।
बिहारी ने फिर कहा :
"तिय तिथि तरुन किसोर वय पुन्य बाल सम दोन।
काहू पुन्यनु पाइयतु वैस सन्धि संक्रोन।"
काहू पुन्यनु पाइयतु वैस सन्धि संक्रोन।"
दूती नायक से नायिका के बारे में कहती है, “नायिका रूपी तिथि में तारुण्य और किशोर दोनों ही अवस्थाओं की संयुक्त स्थिति पुण्यकाल-सी हो गई है। यह व्यस्संधिसंक्रमण विरले व्यक्ति को ही पुण्यों से मिलता है।"
-ज्योतिषज्ञान परक दोहा है।
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