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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...

2

 
केशवदास गुणाढ्य सनाढ्य जाति के थे। वे इस समय वृद्ध हो चुके थे। वे भक्त भी थे और रसिक भी। उनकी कुल-परम्परा में सब लोग संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित होते आए थे। उस समय वे अपनी प्रसिद्ध कृति 'रामचन्द्रिका' की एक नई प्रतिलिपि को सामने चौकी पर रखे बैठे थे।

पिता केशवराय सामने बैठे थे। पास में बैठा था बालक बिहारी।
"यह मेरा छोटा पुत्र है!" पिता ने कहा।

वृद्ध ने स्नेह से देखा। वे जितने विद्वान् थे, उतने ही सरल भी थे।
"मैं इसे काव्यादि सुनाया करता हूं।" पिता ने कहा।

वृद्ध ने फिर सहृदयता से सिर हिलाया। उनकी आंखें गहरी थीं। गलमुच्छ भी सफेद थीं। मूंछे भी। सिर के लम्बे बाल इस समय कंधे पर सफेद-से पड़े थे। वे पगड़ी नहीं पहने थे।

उन्होंने सिर पर हाथ फेरा। बिहारी मुस्करा दिया।

वृद्ध ने उसकी मुस्कान देख ली। वोले, "केशवराय जी! बालक मेरे केशों को देखकर मुस्करा रहा है!" और स्वयं मुस्कराए। बिहारी की ओर पिता ने घूरकर देखा। बिहारी अप्रतिभ हो गया।

केशवदास जी बोले, "केशवराय जी! इन केशों में तो, मैं क्या कहूं...!' वे मुस्कराकर कुछ ध्यानमग्न हो गए।

केशवराय उनकी नजर बचाकर मुस्कराए, फिर बोले, “मैं सुन चुका हूं।"

केशवदास ने सिर उठाया मानो कुछ सुनना चाहते थे।
केशवराय जी ने कहा-

 
केसव केसन असकरी जस अरिहूं न कराहिं!
चंद्रबदन मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं!


केशवदास मुक्त कंठ से हंसे और बोले, "लोगों ने मेरे केशों को सफेद होते देखकर बार-बार मुझसे पूछा। मैं क्या करता। मैंने भी उनका मनोरंजन करने को यह कह दिया। वैसे मुझे चन्द्रवदनी से क्या करना है!"

"मैं समझ गया था!" पिता ने कहा।

बिहारी ने आश्चर्य से देखा। केशवदास के मुख पर गौरव था, एक प्रभाव डालने की शक्ति थी। पिता से उसने सुना था, 'केशवदास बहुत बड़े कवि हैं। बहुत बड़े आदमी हैं।  उनके घर के तोते संस्कृत बोलते हैं। रामचन्द्रिका में उनका अगाध पाण्डित्य है। चंद्र के बाद केशव ही कवि हुआ है। गंग अवश्य थे, परन्तु केशव केशव है। यों सूर और तुलसी भी हुए हैं, परन्तु केशव में संस्कृत के महाकवियों का-सा गौरव है। वह तो युग बदल गया। लोग अब संस्कृत समझते नहीं। अन्यथा ब्राह्मण भाषा में लिखते ही क्यों? अरे, वे बड़े चतुर हैं। वीरसिंह जब अबुलफजल के विरुद्ध पकड़े गए थे तब अकबरी दरबार में जाकर उन्हें क्षमा दिलाना इन्हीं का काम था। कोई साधारण बात नहीं थी।

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