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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...


केशवदास ने रामचंद्रिका उठा ली और कहा, “यह मैंने आपके लिए मंगाई है लेखक से अभी।"

पिता ने माथे से लगाई।

केशवदास की आंखें चमक उठीं। बोलें, "तो केशवराय जी ओरछा न छोड़िए। मैं महाराज से कहूंगा। द्विजों का यहां मान है। साधना करिए। 'चंद्रिका' का अध्ययन करके मुझे बताएं।"

"मैं क्या बता सकता हूं, महाकवि!" केशवराय ने कहा, “यह तो महासमुद्र है। इसके मोती एक से एक बड़े अमूल्य हैं।"

"हां," कवि ने कहा, “आप ऐसा कहते हैं। सुना है काशी के लोग क्या कहते हैं?"

केशवराय ने ऐसे देखा जैसे नहीं जानते थे।

"कहते हैं, काव्य तो तुलसी ने लिखा है। रामचंद्रिका में केवल छंदों का चमत्कार है। एक बात पूछता हूं।"

वे कुछ झुके और कहा, “तुलसीदास भक्त हैं गोसाईं। क्या वे सचमुच कवि हैं? उनमें वाणी का वह सौष्ठव कहां?" फिर रुककर कहा, "चलो ठीक है। आप विश्राम करें।"

केशवराय प्रणाम करके उठे तो स्वयं केशवदास उन्हें पहुंचाने उठ खड़े हुए।

“आप बैठिए..."
"कोई बात नहीं।" केशवदास ने कहा, “बालक का क्या नाम रखा है?"
"इसका? बिहारीलाल।"
"विद्यारम्भ करा दिया है न?"
"लघुकौमदी और अमरकोष समाप्त कर चुका है। पाणिनी के सूत्र भी।"
"तब तो भूमि तैयार हो चुकी है। अब काव्य आरम्भ करें।"
"पांच वर्ष का था तभी से लगा दिया। बड़ा तो इतना कुशाग्र नहीं निकला।"
बिहारी के मुख पर गर्व की आभा झलक आई।
वृद्ध महाकवि ने कहा, "बिहारी!"
पिता ने कहा, “कह, गुरुदेव।"
बिहारी सहसा ही अचकचा गया।

"मैं इसे आप जैसे महापुरुष की शरण में ही छोड़ना चाहता हूं। आज्ञा दें।"
"तुम्हारा पुत्र मेरा पुत्र है।" वृद्ध महाकवि ने कहा।

पिता के मुख पर एक विभोर आनन्द-सा खेल गया। वे इस आकस्मिक हर्ष के लिए जैसे तत्पर नहीं थे।

विशाल भवन की सीढ़ियों से उतरते समय पिता ने एक बार मुड़कर पीछे देखा और फिर धीरे से कहा, "मुरारी! मेरा भार हल्का कर । महाकवि केशवदास!" फिर कहा, "बिहारी!"
"हां! दादा!"
"पुत्र! वह भविष्यवाणी सफल होकर ही रहेगी। सचमुच तेरा भाग्य मुझे अच्छा प्रतीत होता है। महाकवि केशव का वरद तुझे न जाने कितना ज्ञान देगा।"

जब वे घर पहुंचे तब मां स्नान करके बैठी थी। देखते ही बोली, “आ गया बेटा! कहां हो आया?"

"मैं! महाकवि केशवदास का शिष्य बन आया हूं मां!' बिहारी का गर्व से भरा स्वर गूंज उठा।

प्रवीणराय का सौन्दर्य अभी भी कम नहीं हुआ था। वह अब लगभग 35 वर्ष की थी। केशवदास की यह वेश्या उनके संपर्क में आकर स्वयं काव्य-रचना करने लगी थी। वह  बहुमूल्य वस्त्र पहनती और उसकी ग्रीवा में अत्यन्त मूल्यवान मोती के हार झूला करते। कभी-कभी वह मुगल ढंग की पगड़ी भी पहनती, जिसका रिवाज ऊंचे घराने के मुगलों के अतिरिक्त हटता जा रहा था। उसकी त्वचा मक्खन-सी श्वेत और स्निग्ध थी। वह बड़े ही मधुर स्वर में गाती थी।

बिहारी को देखा तो कहा, "बड़ा सुन्दर बालक है। किसका बेटा है?"
बांदी ने कहा, “ग्वालियर से माथुर चतुर्वेदी केशवराय आकर ओरछा में बसे हैं न?"
"हां, हां," प्रवीणराय ने कहा, “मैं उनके बारे में सुन चुकी हूं। कविराय भी उनके बारे में कहते थे। बड़ा सुन्दर बालक पाया है।"

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