जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
|
3 पाठकों को प्रिय 147 पाठक हैं |
कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
बिहारी प्रणाम कर चला आया।
यों बिहारी ने बावन राजाओं में से कई अपनी ओर कर लिए। उसके दोहों में अब
शृंगार प्रधान हो गया। किन्तु यह कोई आक्रमण न था। स्त्री का रूप सृष्टि की
सबसे बड़ी सुन्दरता थी। जीवन भोग था, विलास था। और जीवन में था ही क्या, जिस
पर सच्ची कविता बन पाती। वह रूप और यौवन उड़ेलने लगा।
धन बरसने लगा।
मानो कविता एक सूर्य थी, जिसकी दोहे रूपी किरणों से वासना के जल भाप बनते थे
और अन्त में बिहारी को ही भिगो जाते थे, चन्द्रकला के अंचल में।
सुशीला!
वह अकेलापन महसूस करती। नाइनें दिन-रात सेवा करतीं। खाना, पीना, वस्त्र,
आभूषण, क्या नहीं था। दान करती थी, स्त्रियां सिर झुकाती थीं। पर वह फिर भी
सूनी थी। बिहारी ने आकर कहा, “सुशीला!"
वह नहीं बोली।
"क्यों? बोलती क्यों नहीं?"
"क्षमा करें, स्वामी।"
"इसको जमा कर लो," बिहारी ने सेवक को आज्ञा दी।
उसने हीरों का पिटारा खोल दिया।
इतने हीरे!
क्यों? कहां से आए?
बिहारी मुस्करा रहा था। वह हीरे कविता के द्वारा आए थे। राजाओं में होड़ लग
गई थी।
"भविष्य के लिए!" उसने कहा।
"विधाता अपना ही तो है," सुशीला ने उत्तर दिया।
"इस समय ही तो!"
"क्यों आना बन्द होगा क्या?"
"आएगा, जब तक आना है।"
"फिर क्या कविता नहीं होगी?"
'यह कैसे हो सकता है?" बिहारी ने कहा। वह चिढ़ गया था।
सुशीला पिटारा ढकने लगी।
बिहारी ने कहा, “तुम अब भी प्रसन्न नहीं हो?"
उसने केवल आंखें झुका दीं।
वह बाहर आया। बांके ने कहा, "मालिक!"
"क्या है?"
"बड़ा कहा..."
"मैंने ही दिया है चन्द्रकला को! तू चुप रह!"
बिहारी सोचने लगा।
बांके चला गया।
चन्द्रकला दर्पण के सामने बैठी रूप निहार रही थी। उसकी टहलनी खड़ी पंखा झल
रही थी।
वासना का ज्वार बिहारी में उफन रहा था।
उसने पर्दा हटाया।
चन्द्रकला शरमा गई।
बिहारी लौट आया।
आज मन स्फुरित था। वह क्या चाहता था अब! वह समझ नहीं पा रहा था। आनन्द से
उसने इत्रदान उठाया। स्फटिक का बना था। कितना सुन्दर था।
कभी कल्पना भी की थी इसकी।
अगर यह टूट गया तो!
तोड़ दिया हठात्! पर कुछ भी नहीं हुआ।
बांके भागा आया। बोला, "टूट गया महाराज!"
"फेंक दे।"
कितना सुख था वैभव में!
अपार! अनन्त!
आज बिहारी कहां था?
एक दिन वह कहां था?
हठात् याद आया। वह क्या सोच रहा था? क्या वह वही बिहारी था।
|