जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
क्या यह सब उसका ही रूप था? काव्य कहां है? मन ने कहा, 'काव्य
ही तो है! सब कुछ नष्ट हो सकता है, पर जो रूप के अपरूप वर्णन वह अपने दोहों
में कर रहा है, वे कभी नष्ट नहीं होंगे। वैभव उसका सत्य नहीं। काव्य ही उसका
सत्य है।
होंठ बोल उठे :
"कनक कनकते सौगुनी मादकता अधिकाइ।
उहिं खाये वौराइ जग, इहिं पाए बौराइ।"
उहिं खाये वौराइ जग, इहिं पाए बौराइ।"
कनक (सोना-संपत्ति) में कनक(धतूरे) से सौ गुनी मादकता अधिक होती है। उस कनक को तो खाने पर पागलपन आता है, पर इसे अर्थात् सोने को तो पाने पर ही बुद्धि बौरा जाती है।
सब कुछ भाग्य का खेल है। किन्तु वैभवशील व्यक्ति का स्वभाव कैसा होता है? जब सम्पत्ति रूपी धन बढ़ता है तब उसका हृदय रूपी कमल भी ऊपर उठता जाता है। पर जब जल घटने लगता है तब वह कमल नहीं झुकता, वरन् समूल नष्ट हो जाता है! सरोवर और व्यक्ति कब अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर जाते! उसने दुर्दशा में कभी धन नहीं जोड़ा। अब खाए-खर्चे पर बच जाए तो वह क्यों न जोड़े।
भीड़ें फट गईं। राजा लोग लौट चले। हाथी, घोड़े, पलटन, सेवक और फकीर-याचक सब चले गए।
कुछ दिन बाद बिहारी दरबार से लौट रहा था। उधर शरीफुल्मुल्क और खुर्रम के सैनिकों में धौलपुर के पीछे युद्ध हो गया था। खानखाना का दिल डांवाडोल था। वे खुर्रम के साथ हमदर्दी रखते थे। नूरजहां अपनी शेर अफगन से जन्मी बेटी को शहरयार से ब्याह देने के बाद खुर्रम के विरुद्ध हो गई थी।
बिहारी ने देखा, रहीम वृद्ध था। इधर शाहंशाह की आंख उसकी ओर से फिर रही थी, यद्यपि उसे दक्षिण भेजने की भी बात चल रही थी। खानखाना दरिद्र-सा हो रहा था।
बिहारी ने कहा, “प्रणाम करता हूं।"
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