जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
वह चुप रहा।
सुशीला ने फिर कहा, “ऐसी ही कोई तुम्हारी वेश्याओं-सम्बन्धी होती तो मैं नहीं
पूछती। नायिका भेद कविता है! मैं कहती हूं कि तुम भक्ति की कविता क्यों नहीं
लिखते? उसमें तुम्हारा मन शांत होगा।'' सुशीला ने बात को उठाकर कहा, 'बताओ न
मुझे।"
"अनंतकुंवरि चौहानी ने बुलाया था।"
"महारानी ने!"
बिहारी कहने लगा, "हां, वे चिंता में हैं।"
"क्यों?"
बिहारी ने बताया।
सुशीला हंसी।
"हंसी क्यों?"
हंसती थी कि स्त्री का भाग्य! भिखारिन से रानी तक एक ही रोना है।
और यह कविता जब से बढ़ी तब से तो बात ही क्या?
"तुम्हें पसन्द नहीं?"
सुशीला ने व्यंग्य से कहा, “तुम्हें है।"
"सब यही करते हैं।"
"कुछ ऐसे भी हैं जो परे हैं।"
"उन पर परिवार का बोझ नहीं।"
"ठीक है। बोझ स्त्री है और स्त्री का बोझ काटने का कवि के पास और कोई तरीका
नहीं।"
बिहारी ने कहा, "मैं मजबूर था सुशील, मेरे पास और कोई मार्ग नहीं था, किस के
पास नहीं है। किन्तु एक बात और है।"
"क्या?"
"इन सबसे ऊपर है काव्य, सौन्दर्य, जो स्थायी है।"
सुशीला खीझ उठी।
बिहारी ने कहा, "और सौन्दर्य का आधार केवल सूक्ष्म नहीं होता, स्थूल होता है।
उसका निर्वाह करना भी आसान नहीं है। पहले अनजान था। अब तो अनुभव हो गया है।"
"तो फिर चिन्ता क्या है। महारानी से कह दो न! तुम तो परकीया नायिकाओं के
प्रशंसक हो। उनसे कह दो, छोड़े महाराज की चिन्ता। चुपचाप महल में ढूंढ़ लें
कोई।"
"वैसा भी महल में असंभव नहीं है। परन्तु मैं स्वकीया का भी प्रशंसक हूं!
कुलनारी तो कुलनारी ठहरी।"
"सच कहते हो,” सुशीला ने कहा, “दोष पुरुष को नहीं लगता।"
“यह तो स्मृतियों ने कहा है।"
बिहारी का मन व्यथित हो गया।
“पर अब करोगे क्या?" सुशीला ने बात मोड़ी। अब जीवन का दूसरा पक्ष आरम्भ हुआ,
पति और घर की मंगल कामना।
"मैं क्या जानूं?' बिहारी ने कहा।
"भगवान का नाम लो।"
"उन्हीं का सहारा है, यह तो मैं भी जानता हूं।"
'मैंने कुछ कड़े बोल कह दिए?"
"नहीं।"
"फिर तुम नाराज-से क्यों हो?"
"तुम..."
"क्यों? मैंने क्या कहा?"
"मैं कब कहता हूं कि तुमने कुछ कहा।" बिहारी ने वातायन के बाहर झांकते
हुए कहा, “क्या तुम ही सोचती हो यह सब? मैं भी सोचा करता हूं कि क्यों डूबे
जाते हैं हम वासना में?"
वह देखती रही।
उसने ही कहा, “पर डूबना पड़ता है। स्त्री डुबाती है।"
"राजा डुबाते हैं।"
"नहीं! प्रजा भी डुबाती है। यह जो लोग गाते हैं, उसमें कम शृंगार रहता है।
बहु विवाह क्या प्रजा में नहीं?"
सुशीला ने कहा, “यथा राजा तथा प्रजा।"
और बिहारी का मन व्याकुल हो उठा।
बोला, “देखो यह न कहो। राजा क्या धर्म के विरुद्ध भी कुछ कर सकता है?"
"नहीं।'
"फिर वहां क्यों ऐसा नहीं कहतीं?"
"राजा अनाचार को रोक सकता है।"
"राजा हिन्दू नहीं हैं। वह धर्म को क्या जाने?"
"सच कहते हो। तो फिर आमेर का उद्धार करो न।"
सुशीला यह कहकर चली गई।
बिहारी का मन खट्टा हो गया। यह स्त्री! इसी के कारण ही उसे संसार में आना
पड़ा। अन्यथा क्या वह फंसता?
वह कह उठा :
तिय छवि छाया ग्राहिनी ग्रसै बीच ही आइ।।
इस संसार रूपी पारावार को पार करके कौन व्यक्ति उसे दूसरे तट पर अर्थात् मुक्ति पर ले जा सकता है। इस किनारे पर स्त्री की छवि है जो पुरुष की छाया देखकर उसे बीच में ही ग्रस लेती है जैसे सुरसा राक्षसी किया करती थी।
मन ऊपर से नीचे तक पसीने-पसीने हो गया। एक बार को आंखों के आगे अंधेरा-सा छा गया। फिर वह सचेत हुआ।
क्या करूं?
नवोढ़ा रानी!
अभी से यह विलास।
हठात् याद आया। उसने पढ़ा था प्राकृत दोहा :
मअरन्द पाणलोहिल्ल भमर तावच्चिअ मलेसि।।
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