जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
बाहर क्यारियों में फूल खिले हुए थे। उनकी गन्ध की झकोरें यहां भी आ रही थीं।
वह उस शोभा को देखता रहा। सब कुछ कितना शांत था। कभी भी युद्ध ने यहां विनाश
नहीं किया, मेवाड़ धूल में मिल गया, किन्तु यहां! यहां कभी मनुष्य ने इतना
अभिमान ही नहीं किया कि इस प्रकार उसका विनाश हो जाता।
वह लौट आया।
मन भारी था।
आज जैसी समस्या कभी समाने नहीं आई थी।
मुगल दरबार में यह सब भला कौन पूछता था?
वहां बिहारी अंतरंग तो नहीं था।
सुशीला ने देखा।
बिहारी ने पगड़ी उतार कर धरी। हाथ को जोड़कर ऊपर उठाया और अंगड़ाई ली। शरीर
में से थकन को वह अब निकाल देना चाहता था। अनंतकुंवरि चौहानी की बातें कानों
में बार-बार आकर सीसे-सी पिघल उठती थीं। राजा हिन्दू है।
क्या इसे नष्ट होना चाहिए? बिहारी, तू क्या सोच रहा है? तू मुगलाश्रित है।
"क्या सोच रहे हो?" सुशीला ने पूछा।
वह नहीं बोला।
"मैं जानती हूं।"
उसने मुड़कर देखा।
सुशीला ने कहा, “आज कोई गम्भीर बात है।"
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