जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
सुबह बीत गई तब पालकी आ गई। कहार उसे ले चले। धीरे-धीरे वे पहाड़ के ऊपर चढ़
चले। बिहारी का मन भीतर-ही-भीतर व्याकुल-सा हो रहा था।
धीरे से पर्दे के पीछे से एकबांदी ने कहा, “महारानी जू पालागन करती हूं
ब्राह्मण देवता को।'
बिहारी ने आशीर्वाद दिया।
बांदी ने कहा, “महारानी जू की आज्ञा है कि कविराइ राज्य का कल्याण सोचें।"
"विनय है कि सोचता हूं। कहना हो सो कहें।"
बांदी ने फिर कहा, “महारानी चिंतित हैं। महाराज स्त्री के पीछे राज्य की
चिंता छोड़ बैठे हैं, पतिव्रता स्त्री इस बात की चिन्ता नहीं करती कि उसका
पति कितनी स्त्रियां रखता है, क्योंकि ऐसा करना तो पुरुष के लिए सनातन है।
सभी मर्द सदा से ऐसा ही करते आए हैं, करते हैं और करते रहेंगे। स्त्री तो
परस्त्री से मिलकर रहती है। इसीलिए महारानी कहती हैं कि विलास करें महाराज,
यह अधिकार तो उनका ठीक है लेकिन राज्य का कार्य क्यों छोड़ें, क्योंकि जो
पुरुष स्त्री के हाथ बिक जाता है, उसका नाश भी शीघ्र हो जाता है। आमेर के
राज्य में शत्रु हैं, जैसे चकत्ता के घराने में हैं। कविराइ समझ रहे हैं।
क्या आमेर भी दिल्ली-आगरा बने?"
'नहीं, ऐसा कब कहता हूं मैं!"
"ब्राह्मण को क्षत्रिय कुल ही चाहिए न? अकबरशाह को हमारी हिंदुवानी की ओर,
मैं देख रही हूं, महाराज मानसिंह और महाराज भगवानदास ने झुकाया था। मेवाड़ की
तरह न तो आमेर बिना साधन के लड़ा, न उसने पक्ष गंवाया।"
बिहारी ने कहा, "यह तो ठीक है, व्यर्थ लड़कर मरना वीरता नहीं है। वीरता वही
है जिसमें स्वार्थ की भी सिद्धि हो। आसकरन जाडा इसीसे जाकर अकबरशाह के पास
पहुंचा था।"
पर्दो पर हवा डोल गई। दोनों ओर स्वार्थ था। मेवाड़ की प्रोज्ज्वल महिमा यहां
कहां थी।
"तो अब हिन्दू राज रहे कि डूबे? एक बार आपस की फूट बढ़ गई," बांदी ने
दुहराया, “तो कौन जाने क्या होगा!"
"मैं कोशिश करूंगा!" बिहारी ने कहा।
आवाज आई, “तो पधारें। भेंट मनावन पहुंच जाएगी।"
वह विदा लेकर चला।
धीरे-धीरे उतरा। सुन्दर महल थे। एक-एक जगह कला और सौन्दर्य था।
यह सत्य था कि सब कुछ आगरे और दिल्ली के महलों से छोटा था, फिर भी
यहां हिन्दू राजा थे हिन्दुत्व था।
बिहारी जब बाहर आया तो उसने एक लम्बी सांस ली।
सिल्लादेवी को सिर झुकाया। इस देवी को महाराज मानसिंह बंगाल के समुद्र में से
उद्धार करके लाए थे। यहां अब भी इसके लिए एक भैंसा रोज कटता था। रक्त की गन्ध
हवा में से उठा करती थी। वैष्णव बिहारी ने माथा झुकाया और सांस रोकता हुआ आगे
बढ़ आया। उसने मन ही मन कहा, 'हे दयामयी! मेरी तपस्या का हल कर। जगदम्बे!
मेरी लाज रख।'
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