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ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज्म़ें

अहमद फराज

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1474
आईएसबीएन :9788170289807

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फराज साहब की उत्कृष्ट गजलें....

Ye Meri Gazlen Ye Meri Nazmein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अहमद फ़राज़ की शायरी

अहमद फ़राज़, फ़ैज़ साहब के बाद हमारे मक़बूल-तरीन1 शायर हैं। उन्हें जीते जी ऐसी शोहरत2 मिली है, जो अफ़साना बन जाती है। फ़राज़ के बाज़-मासरीन भी उनकी शायरी पर मोतरिज़3 होते हैं और सन् 1960 के बाद की नज़्म और ग़ज़ल के जायज़ों में अकसर फ़राज़  से ज़्यादा ज़िक्र ऐसों का भी होता है जो उनकी शायराना हैसियत को नहीं पहुँचते। फ़राज़ की शायरी पर बाज़ाप्ता बहस और ज़िक्र से परहेज किया जाता रहा है। मेरा अपना तार्रुफ़4 उस शायरी से तक़रीबन उन ही दिनों हुआ जब फ़राज़ की इब्तिदाई5 नज़्में और ग़ज़लें पहले शाया6 हुईं। और मेरे पहले असर की पुष्टि उस वक़्त हुई जब ‘फ़िराक़’ की ताज़ा तस्वीर देखकर’ कही जाने वाली उनकी एक नज़्म सामने आई-


इक संगतराश7 जिसने बरसों
हीरों की तरह सनम8 तराशे
आज अपने सनमकदे9 में तन्हा
मजबूर, निठाल, ज़ख़्मखुर्दा10
दिन रात पड़ा कराहता है।


ख़ुद फ़िराक़ साहब पर फ़राज़ की इस नज़्म ने इतना गहरा तास्सुर मुरत्तिब11 किया था कि कई रोज़ तक वह अपने हर मुलाकाती को यह नज़्म सुनाते रहे।
फ़राज़ ने अपनी शायरी को न तो किसी ख़ासी वज़ा12 का पाबंद होने दिया, न क़दीमो-जदीद13 के माबैन14 कोई हद मुक़रिर15 की। हमादे अहद16 की आम जदीद शायरों के बरअक्स17, फ़राज़ की शायरी का उक़बा पर्दा18 मग़रबी-ज़बानों19 के अदब20
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1.    अच्छे प्रसिद्ध,
2.    लोकप्रयिता,
3.    एतराज़ जताओ,  
4.    परिचय,
5.    प्रारंभिक,
6.    प्रकाशित,
7.    पत्थर तराशने वाला,
8.    मूर्ति
9.    मूर्ति घर, मंदिर,
10.    घाव से परेशान,
11.    प्रभाव डालना,
12.    वाद-नियम,
13.    पुराने-नए,
14.    बीच,
15.    सीमा स्थापित,
16.    युग,
17.    विपरीत,
18.    परलोकी पर्दा,
19.    पश्चिमी भाषाओं
20.    साहित्य।

यह शे’री हय्यतों1 की बजाय फारसी और उर्दू की क्लासिकी शायरी ने मुहय्या किया है। उनकी ज़बानो-बयान में फ़ारसी ग़ज़ल और उर्दू की क्लासिकी ग़ज़ल के रंग साफ़ झलकते हैं। उस्तादज़ा2 की ज़मीनों में उन्हें बहुत सी ग़ज़लें कही हैं और उनमें भी उनकी तरज़ीहात3 सौदा, मीर, मुसहफ़ी, आतश, ग़ालिब के क़ायम-कर्दा असालीब4 की पाबंद हैं। फ़राज़ का इम्तियाज़5 यह है कि उस्तादज़ा की पैरवी करते हुए भी वह अपनी तशख़ुश6 महफ़ूज रखते हैं और उस्तादज़ा के शब-चिराग़ की रोशनी से फ़ैज़ उठाने के बावजूद अपनी तख़लीकियत8 को बुझने नहीं देते। मिसाल के तौर पर उनकी ग़ज़लों से ये चंद अशआर देखिए :


कज9 अदाओं की इनायत10 है कि हमसे इश्शाक़11
कभी दीदार के पीछे कभी दीदार के बीच
तुम होना खुश तो यहाँ कौन है खुश भी फराज़
लोग रहते हैं इसी शहरे-दिल-आजार12 के बीच

मुहब्बतों का भी मौसम है जब गुज़र जाए
सब अपने-अपने घरों को तलाश करते हैं।

सुना है कि कल जिन्हें दस्तारे-इफ़्तिख़ार13 मिली
वह आज अपने सरों को तलाश करते हैं।
रात क्या सोए कि बाकी उम्र की नींद गई
ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर14 का

अब तो हमें भी तर्के-मिरासिम15 का दुख नहीं
पर दिल यह चाहता है कि आगाज़16 तू करे

अब तो हम घर से निकलते हैं तो रख देते हैं
ताक पर इज़्ज़ते-सादात17 भी दस्तार18 के साथ

हमको इस शहर में तामीर19 का सौदा है जहाँ
लोग मेमार20 को चुन देते हैं दीवार के साथ

1.    सीमाओं, 2. गुरुओं, 3. प्रथमिकताएँ, 4. स्थापित रूपाकार ढंग, 5. परिचय, 6. अस्तित्व, 7. सुरक्षित, 8. रचनात्मकता, 9. कुटिल, वक्र, 10. कृपा, 11. प्रेमी, 12. जख्मी दिल शहर 13. पगड़ी का सम्मान, 14. साकार, 15. संबंध-विच्छेद, 16. प्रारंभ, 17. सैयदों की इज़्ज़त, 18. पगड़ी, 19. निर्माण। 20. निर्माता


इतने सुकून के दिन कभी देखे न थे ‘फ़राज़’
आसूदगी1 ने मुझको परेशान कर दिया

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़2 करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं।

राहे-वफ़ा3 में हरीफ़े-ख़राम4 कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकलके देखते हैं।


इन अशआर से जो मौज़ेक बनता है, उससे एक रोमानी, नवक्लासीकी, एक जदीद, एक बाग़ी शायर की तस्वीर एक साथ सामने आती है। फ़राज़ की हैसियत5 के साथ कई नाम हैं, एक साथ कई चेहरे। इनमें नुमायाँ6 सूरतें7 दो हैं। एक तो किसी अज़्ली8 अब्दी9 आशिक़ की, दूसरे एक रेडिकल, हस्सास10, ज़ज्बाती इक़लाबी की जो गिर्दो-पेशे की ज़िन्दगी से ग़ैर-मुत्मईन और अपने माहौल से बरसरे-तरीन कहा जा सकता है कि उनकी बसीरतों11 का पसमंज़र उनकी अदबी-रिवायत12, उन तक सीना-ब-सीना मनतक़िल13 होने वाली क्लासीकी कद्रों के अलावा उनके ज़माने की इज्तिमाई14 ज़िदगी और उनकी तारीख़ ने भी साथ-साथ मुरत्तिब15 किया है। फ़िराक़ इस तरह एक साथ रिवायती भी हैं और जदीद भी। जिस मआसिर अदब16 (बिल खुसूस पाकिस्तानी में तख़लीक़ किए जाने वाले अदब) की मर्कज़ी17 रिवायत का नाम दिया जा सकता है, अपनी सबसे मानूस और मारूफ़18 शकलों में फ़ैज़ के बाद हबीब ज़ालिब और फ़राज़ के यहाँ रूनुमा हुई। फ़राज़ नज़्मों और ग़ज़लों में नाला इस ख़ामोशी के साथ नग़मा बनता है और शे’री तजुर्बा ऐसे ख़ुदकार अंदाज़ में अवामी और इज्तिमाई वारदात की शक्ल अख़्तियार कर लेता है कि उनके शेर सुनने या पढ़ने के इदराक19 पर कोई बात भी बोझ नहीं बनती।


मुझे तेरे दर्द के अलावा
भी और दुख थे यह मानता हूँ
हज़ार गम थे जो ज़िंदगी की
तलाश में थे यह जानता हूँ
मुझे ख़बर थी कि तेरे आँचल
में दर्द की रेत छानता हूँ

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1.    संपन्नता, 2. परिक्रमा, 3. प्रेम का पथ, 4. प्रतिद्वंदी साथी, 5 हैसीयत, 6. प्रदर्शित, 7. स्थिति, 8 आरंभिक, 9. अंतिम, 10. संवेदनशील, 11. दृष्टिकोण, 12. परंपरा, 13. हस्तांतरित, 14. सामूहिक, 15. संयोजित, 16. प्रतिनिधि-साहित्य, 17. जानी-पहचानी, 18. दुख-संत्रास, 19. बुद्धि, मस्तिष्क


मगर हर एक बार तुझको छूकर
यह रेत रंगे-हिना1 बनी है
यह जख़्म गुलज़ार बन गए हैं
यह आहे-सोज़ाँ घटा बनी है
यह दर्द मौजे-सबा2 बनी है
आग दिल की सदी बनी है
और अब यह सारी मताए-हस्ती3
यह फूल यह जख़्म सब तेरे हैं
यह दुख के नोहे4 यह सुख के नग़में
जो कल मेरे थे वो अब तेरे हैं
जो तेरी कुरबत5 तेरी जुदाई
में कट गए रोज़ो-शब6 तेरे हैं


(ये मेरी ग़ज़लें, ये मेरी नज़्में)


यह कौन मासूम हैं
कि जिनको
स्याह7 आँधी
दीये समझकर बुझा रही है
उन्हें कोई जानना नहीं है
उन्हें कोई जानना न चाहे
यह किस क़ाबिल के सरबकफ़-जॉनिसार8 हैं
जिनको कोई पहचानना न चाहे
कि उनकी पहचान इम्तहान है
न कोई बच्चा, न कोई बाबा, न कोई माँ है
महल सराओं में खुश-मुकद्दर9
श्य्यूख़10 चुप
बादशाह चुप हैं
हरम के पासबान11
आलम पनाह चुप है।
तमाम अहले-रिया12 कि जिनके लबों पे है
‘लाइलिहा’ चुप हैं

(-बेरुत-1)

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1.    मेहंदी का रंग, 2. सुबह की हवा, 3. वजूद की पूँजी, 4. शोकगीत, 5. प्रेम, 6. दिन-रात, 7. काली, 8. सर पर कफन बांध, जान देने वाले, 9 अच्छा भाग्यशाली, 11 पहरेदार, 12, तमाम जनता


कौन इस कत्ल-गाहे-नाज1 के समझे इसरार
जिसने हर दशना2 को फूलों में छुपा रखा है
अमन की फ़ाख़्ता उड़ती है निशां पर लेकिन
नस्ले-इंसाँ को सलीबों3 पे चिढ़ा रखा है
इस तरफ नुफ्त4 की बाराने-करम5 और इधर
कासाए-सर6 से मीनारों को सजा रखा है।

(-सलामती कौउंसिल)

मुझे यकीन है
कि जब भी तारीख की अदालत में
वक़्त लाएगा
आज के बे-जमीर-ब-दीदा-दलेर कातिल7 को
जिसकी दामानों-आसतीं
ख़ून बेगुनाही से तरबतर हैं
तू नस्ले-आदम
वुफूर-नफरत8 से सुए-क़ातिल पे थूक देगी
मगर मुझे भी यक़ीन है
कि कल तारीख़
नस्ले-आदम से यह पूछेगी
ऐ-मुहज़्जब जहाँ9 की मख़लूक़10
कल तेरे रूबरू यही बेज़मीर क़ातिल
तेरे क़बीले के बेगुनाहों को
जो तहतेग़11 कर रहा था
तो तू तमाशाइयों की सूरत
ख़ामोश व बेहिस
दरिंदगी के मुज़ाहिरे12 में शरिक
क्यों देखती रही है
तेरी यह सब नफ़रतें कहाँ थीं
बता कि इस ज़ुल्म-कैश क़ातिल की तेग़बर्रा13 में
और तेरी मसलेहत के तीरों में
फ़र्क़ क्या है ?

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1. दबाव, चाकू, 3. फाँसी, 4. वाणी, 5. वर्षा की कृपा, 6. सिर के कटोरों, 7. हृदयविहीन, बेशर्म हत्यारा, 8. प्रभु घृणा, 9. सभ्यसंसार, 10. रचना, 11. हत्या, 12. प्रदर्शन, 13. तलवार की धार




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