जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
गाँव तो बिलकुल छोटा-सा था।वहाँ के डाकखाने में गया, तो हिन्दुस्तानी नौकर दिखायी दिये। इससे मुझे खुशी हूई। मैंने उनसे बातचीत की। हब्शियों से मिला। उनके रहन-सहन में रुचिपैदा हुई। इसमें थोड़ा समय चला गया। डेक के दूसरे भी कई यात्री थे। मैंने उनसे जान-पहचान कर ली थी। वे रसोई बनाने और आराम से भोजन करने के लिए नीचेउतरे थे। मैं उनकी नाँव में बैठा। बन्दर में ज्वार काफी था। हमारी नाव में बोझ ज्यादा था। प्रवाह का जोर इतना अधिक था कि नाव की रस्सी स्टीमर कीसीढ़ी के साथ किसी तरह बँध ही नहीं पाती थी। नाव सीढ़ी के पास पहुँचती और हट जाती। स्टीमर खुलने की पहली सीटी बजी। मैं घबराया। कप्तान ऊपर से देखरहा था। उसमें स्टीमर को पाँच मिनट के लिए रुकवाया। स्टीमर के पास ही एक छोटी-सी नाव थी। एक मित्र में उसे दस रुपये देकर ठीक किया, और इस छोटी नावने मुझे उस नाव में से उठा लिया। स्टीमर चल दिया ! दूसरे यात्री रह गये। कप्तान की दी हुई चेतावनी का अर्थ अब मेरी समझ में आया।
लामू से मुम्बासा और वहाँ से जंजीबार पहुँचा। जंजीबार में तो काफी ठहरनाथा - आठ या दस दिन। वहाँ नये स्टीमर पर सवार होना था।
मुझ पर कप्तान के प्रेम का पार न था। इस प्रेम ने मेरे लिए उलटा रूप धारणकिया। उसने मुझे अपने साथ सैर के लिए न्योता। एक अंग्रेज मित्र को भी न्योता था। हम तीनों कप्तान की नाव पर सवार हुए। मैं इस सैर का मर्मबिल्कुल नहीं समझ पाया था। कप्तान को क्या पता कि मैं ऐसे मामलों में निपट अज्ञान हूँ। हम लोग हब्शी औरतों की बस्ती में पहुँचे। एक दलाल हमें वहाँले गया। हममें से हरएक एक-एक कोठरी में घुस गया। पर मैं तो शरम का मारा गुमसुम ही बैठा रहा। बेचारी उस स्त्री के मन में क्या विचार उठे होंगे, सोतो वही जाने। कप्तान ने आवाज दी। मैं जैसा अन्दर घुसा था वैसा ही बाहर निकला। कप्तान मेरे भोलेपन को समझ गया। पहले तो मैं बहुत ही शरमिंदा हुआ।पर मैं यह काम किसी भी दशा में पसन्द नहीं कर सकता था, इसलिए मेरी शरमिन्दगी तुरन्त ही दूर हो गयी, और मैंने इसके लिए ईश्वर का उपकार मानाकि उस बहन को देखकर मेरे मन में तनिक भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ। मुझे अपनी इस दुर्बलता पर धृणा हुई कि मैं कोठरी से घुसने से ही इनकार करने कासाहस न दिखा सका।
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