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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...

प्रिटोरिया में पहला दिन


मुझे आशा थी कि प्रिटोरिया स्टेशन पर दादा अब्दुल्ला के वकील की ओर से कोई आदमीमुझे मिलेगा। मैं जानता था कि कोई हिन्दुस्तानी को मुझे लेने आया ही न होगा औऱ किसी भी हिन्दुस्तानी के घर न रहने के बचन से मैं बँधा हुआ था।वकील में किसी आदमी को स्टेशन पर भेजा न था। बाद में मुझे पता चला कि मेरे पहुँचने के दिन रविवार था, इसलिए थोडी असुविधा उठाये बिना वे किसी को भेजनहीं सकते थे। मैं परेशान हुआ। सोचने लगा, कहाँ जाऊँ? डर था कि कोई होटल मुझे जगह न देगा। सन् 1893 का प्रिटोरिया स्टेशन 1914 के प्रिटोरियास्टेशन से बिल्कुल भिन्न था। धीमी रोशनीवाली बत्तियाँ जल रही थी। यात्री अधिक नहीं थे। मैंने सब यात्रियों को जाने दिया और सोचा कि टिकट कलेक्टरको थोड़ी फुरसत होने पर अपना टिकट दूँगा और यदि वह मुझे किसी छोटे से होटल का या ऐसे मकान का पता देगा तो वहाँ चला जाऊँगा, या फिर रात स्टेशन पर हीपड़ा रहूँगा। इतना पूछने के लिए भी मन बढ़ता न था, क्योंकि अपमान होने का डर था।

स्टेशन खाली हुआ। मैंने टिकट कलेक्टर को टिकट देकर पूछताछ शुरू की। उसने सभ्यता से उत्तर दिये पर मैंने देखा कि वह मेरी अधिक मददनहीं कर सकता था। उसकी बगल में एक अमेरिकन हब्शी सज्जन खड़े थे। उन्होंने मुझसे बातचीत शुरू की, 'मैं देख रहा हूँ कि आप बिल्कुल अजनबी हैं और यहाँआपका कोई मित्र नहीं हैं। अगर आप मेरे साथ चले तो मैं आपको एक छोटे से होटल में ले चलूँगा। उसका मालिक अमेरिकन हैं और मैं उसे अच्छी तरह जानताहूँ। मेरा ख्याल है कि वह आपको टिका लेगा। '

मुझे थोडा शक तो हुआ पर मैंने इन सज्जन को उपकार माना और उनके साथ जाना स्वीकार किया। वे मुझेजॉन्स्टन फेमिली होटल में ले गये। पहले उन्होंने मि. जॉन्स्टन को एक ओर ले जाकर थोडी बात की। मि. जॉन्स्टन ने मुझे एक रात के लिए टिकाना कबूल कियाऔर वह भी इस शर्त पर की भोजन मेरे कमरे में पहुँचा देंगे।

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