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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...


अब्दुल्लासेठ का शपथ-पत्र तैयार किया और उसे वकील को दिया। उन्होंने संतोष प्रकट किया। पर वकील-सभा को संतोष न हुआ। उसने मेरे प्रवेश के विरुद्ध अपनाविरोध न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया। न्यायालय ने मि. एस्कम्ब का जवाव सुने बिना ही वकील-सभा का विरोध रद्द कर दिया। मुख्य न्यायाधीश ने कहा,'प्रार्थी के असल प्रमाण-पत्र प्रस्तुत न करने की दलील में कोई सार नहीं है। यदि उसने झूठी शपथ ली होगी, तो उसके लिए उस पर झूठी शपथ का फौजदारीमुकदमा चल सकेगा और उसका नाम वकीलो की सूची में से निकाल दिया जायेगा। न्यायालय के नियमों में काले गोरे का भेद नहीं हैं। हमेस मि. गाँधी कोवकालत करने से रोकने का कोई अधिकार नहीं हैं। उनका प्रार्थना पत्र स्वीकार किया जाता हैं। मि. गाँधी, आप शपथ ले सकते हैं।'

मैं उठा। रजिस्ट्रार के सम्मुख मैंने शपथ ली। शपथ लेते ही मुख्य न्यायाधीश ने कहा,'अब आपको पगड़ी उतार देनी चाहिये। एक वकील के नाते वकीलो से सम्बन्ध रखने वाले न्यायालय के पोशाक-विषयक नियम का पालन आपके लिए भी आवश्यक है !'

मैं अपनी मर्यादा समझ गया। डरबन के मजिस्ट्रेट की कटहरी में जिस पगड़ी को पहनेरखने का मैंने आग्रह रखा था, उसे मैंने यहाँ उतार दिया। उतारने के विरुद्ध दलील तो थी ही। पर मुझे बड़ी लड़ाईयाँ लड़नी थी। पगड़ी पहने रहने का हठकरने में मुझे लड़ने की अपनी कला समाप्त नहीं करनी थी। इससे तो शायद उसे बट्टा ही लगता।

अब्दुल्ला सेठ को और दूसरे मित्रो को मेरी यह नरमी (या निर्बलता?) अच्छी न लगी। उनका ख्याल था कि मुझे वकील के नाते भीपगड़ी पहने रहने का आग्रह रखना चाहिये। मैंने उन्हे समझाने का प्रयत्न किया। 'जैसा देश वैसा भेष' इस कहावत का रहस्य समझया और कहा, 'हिन्दुस्तानमें गोरे अफसर या जज पगडी उतारने के लिए विवश करे, तो उसका विरोध किया जा सकता हैं। नेटाल जैसे देश में यहाँ के न्यायालय के एक अधिकारी के नातेन्यायालय की रीति-नीति का ऐसा विरोध करना मुझे शोभा नहीं देता।'

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