जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
पड़ावउन्ही के घर था। हम सब भूखे थे। पर जब तक चंदा न मिले, भोजन कैसे करे? उन भाई को खूब समझाया-मनाया। पर वे टस से मस न होते थे। गाँव के दूसरेव्यापारियों में भी उन्हे समझाया। सारी रात झक-झक में बीत गयी। गुस्सा तो कई साथियों को आया, पर किसी ने विनय का त्याग न किया। ठेठ सबेरे वे भाईपिघले और उन्होंने छह पौंड दिये। हमें भोजन कराया। यह घटना टोंगाट में घटी थी। इसका प्रभाव उत्तरी किनारे पर ठेठ स्टेंगर तक और अन्दक की ओर ठेठचार्ल्सटाउन तक पड़ा। इससे चंदा वस्ली का काम आसान हो गया।
पर हमारा हेतु केवल पैसे इकट्ठे करने का न था। आवश्यकता से अधिक पैसा नरखने का तत्त्व भी मैं समझ चुका था।
सभा हर हफ्ते या हर महीने आवश्यकता के अनुसार होती थी। उसमें पिछली सभा काविवरण पढ़ा जाता और अनेक प्रकार की चर्चाये होती। चर्चा करने की और थोड़े में मुद्दे की बात कहने की आदत तो लोगों की थी ही नहीं। लोग खड़े होकरबोलने में झिझकते थे। सभा के नियम समझाये गये।
और लोगों ने उनकी कदर की। इससे होनेवाले अपने लाभ को वे देख सके और जिन्हें पहले कभीसार्वजनिक रुप से बोलने की आदत नहीं थी, वे सार्वजनिक कामों के विषय में बोलने और विचारने लग गये।
मैं यह भी जानता था कि सार्वजनिक काम करने में छोटे-छोटे खर्च बहुत पैसा खा जाते हैं। शुरू में तो मैंने निश्चयकर लिया था कि रसीद बुक तक न छपायी जाय। मेरे दफ्तर में साइक्लोस्टाइल मशीन थी। उस पर रसीदे छपा ली। रिपोर्ट भी मैं इसी तरह छपा लेता था। जबतिजोरी में काफी पैसा जमा हो गया। सदस्य बढ़े, काम बढ़ा, तभी रसीद आदि छपाना शुरू किया।
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