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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...

हाईस्कूल में


मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि ब्याह के समय मैं हाईस्कूल में पढ़ता था। उस समय हमतीनों भाई एक ही स्कूल में पढ़ते थे। जेठे भाई ऊपर के दर्जे में थे और जिन भाई को ब्याह के साथ मेरा ब्याह हुआ था, वे मुझसे एक दर्जा आगे थे। ब्याहका परिणाम यह हुआ कि हम दो भाईयों का एक वर्ष बेकार गया। मेरे भाई के लिए तो परिणाम इससे भी बुरा रहा। ब्याह के बाद वे स्कूल पढ़ ही न सके। कितनेनौजवानों को ऐसे अनिष्ट परिणाम का सामना करना पड़ता होगा, भगवान ही जाने ! विद्याभ्यास और विवाह दोनों एक साथ तो हिन्दू समाज में ही चल सकते हैं।

मेरी पढ़ाई चलती रही। हाईस्कूल में मेरी गिनती मन्दबुद्धि विद्यार्थियों मेंनहीं थी। शिक्षकों का प्रेम मैं हमेशा ही पा सका था। हर साल माता- पिता के नाम स्कूल में विद्यार्थी की पढ़ाई और उसके आचरण के संबंध में प्रमाणपत्रभेजे जाते थे। उनमें मेरे आचरण या अभ्यास के खराब होने की टीका कभी नहीं हुई। दूसरी कक्षा के बाद मुझे इनाम भी मिसे और पाँचवीं तथा छठी कक्षा मेंक्रमशः प्रतिमास चार और दस रुपयों की छात्रवृत्ति भी मिली थी। इसमें मेरी होशियारी की अपेक्षा भाग्य का अंश अधिक था। ये छात्रवृत्तियाँ सबविद्यार्थियों के लिए नहीं थी, बल्कि सोरठवासियों में से सर्वप्रथम आनेवालों के लिए थी। चालिस-पचास विद्यार्थियों की कक्षा में उस समय सोरठप्रदेश के विद्यार्थी कितने हो सकते थे।

मेरा अपना ख्याल हैं कि मुझे अपनी होशियारी का कोई गर्व नहीं था। पुरस्कार या छात्रवृत्ति मिलनेपर मुझे आश्चर्य होता था। पर अपने आचरण के विषय में मैं बहुत सजग था। आचरण में दोष आने पर मुझे रुलाई आ ही जाती थी। मेरे हाथों कोई भी ऐसा काम बने,जिससे शिक्षक को मुझे डाँटना पड़े अथवा शिक्षकों का ख्याल बने तो वह मेरे लिए असह्य हो जाता था। मुझे याद है कि एक बार मुझे मार खानी पड़ी थी। मारका दुःख नहीं था, पर मैं दण्ड का पात्र माना गया, इसका मुझे बड़ा दुःख रहा। मैं खूब रोया। यह प्रसंग पहली या दूसरी कक्षा का हैं। दुसरा एकप्रसंग सातवीं कक्षा का हैं। उस समय दोराबजी एदलजी गीमी हेड-मास्टर थे। वे विद्यार्थी प्रेमी थे, क्योंकि वे नियमों का पालन करवाते थे, व्यवस्थितरीति से काम लेते और अच्छी तरह पढ़ाते थे। उन्होंने उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए कसरत-क्रिकेट अनिवार्य कर दिये थे। मुझे इनसे अरुचिथी। इनके अनिवार्य बनने से पहले मैं कभी कसरत, क्रिकेट या फुटबाल मंल गया ही न था। न जाने का मेरा शरमीला स्वभाव ही एक मात्र कारण था। अब मैं देखताहूँ कि वह मेरी अरुचि मेरी भूल थी। उस समय मेरा यह गलत ख्याल बना रहा कि शिक्षा के साथ कसरत का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। बाद में मैं समझा किविद्याभ्यास में व्यायाम का, अर्थात् शारीरिक शिक्षा का, मानसिक शिक्षा के समान ही स्थान होना चाहिये।

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