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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...


व्यायाम के बदले मैंनेटहलने का सिलसिला रखा, इसलिए शरीर को व्यायाम न देने की गलती के लिए तो शायद मुझे सजा नहीं भोगनी पड़ी, पर दुसरी गलती की सजा मैं आज तक भोग रहाहूँ। मैं नहीं जानता कि पढाई में सुन्दर लेखन आवश्यक नहीं हैं, यह गलत ख्याल मुझे कैसे हो गया था। पर ठेठ विलायत जाने तक यह बना रहा। बाद में,और खास करके, जब मैंने वकीलों के तथा दक्षिण अफ्रीका में जन्मे और पढ़े-लिखे नवयुवकों के मोती के दानों- जैसे अक्षर देखे तो मैं शरमाया औरपछताया। मैंने अनुभव किया कि खराब अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी मानी जानी चाहिये। बाद में मैंने अक्षर सुधारने का प्रयत्न किया, पर पके घड़े पर कहीगला जुड़ता हैं? जवानी में मैंने जिसकी उपेक्षा की, उसे आज तक नहीं कर सका। हरएक नवयुवक और नवयुवती मेरे उदाहरण से सबक ले और समझे कि अच्छेविद्या का आवश्यक अंग हैं। अच्छे अक्षर सीखने के लिए चित्रकला आवश्यक हैं। मेरी तो यह राय बनी हैं कि बालको को चित्रकला पहले सिखानी चाहिये। जिस तरहपक्षियों, वस्तुओं आदि को देखकर बालक उन्हें याद रखता है और आसानी से उन्हें पहचानता हैं, उसी तरह अक्षर पहचानना सीखे और जब चित्रकला सीखकरचित्र आदि बनाने लगे तभी अक्षर लिखना सीखें, तो उसके अक्षर छपे के अक्षरों के समान सुन्दर होंगे।

इस समय के विद्याभ्यास के दूसरे दो संस्मरण उल्लेखनीय है। ब्याह के कारण जो एक साल नष्ट हुआ, उसे बचा लेने कीबात दूसरी कक्षा के शिक्षक ने मेरे सामने रखी थी। उन दिनों परिश्रमी विद्यार्थो को इसके लिए अनुमति मिलती थी। इस कारण तीसरी कक्षा में छहमहीने रहा और गरमी की छुट्टियो से पहले होनेवाली परीक्षा के बाद मुझे चौथी कक्षा में बैठाया गया। इस कक्षा से थोड़ी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से होनीथी। मेरी समझ में कुछ न आता था। भूमिति भी चौथी कक्षा से शुरू होती थी। मैं उसमें पिछड़ा हुआ था ही, तिस पर मैं उसे बिल्कुल समझ नहीं पाता था।भूमिति के शिक्षक अच्छी तरह समझाकर पढ़ाते थे, पर मैं कुछ समझ ही न पाता था। मैं अकसर निराश हो जाता था। कभी-कभी यह भी सोचता कि एक साल में दोकक्षाये करने का विचार छोड़कर मैं तीसरी कक्षा में लौट जाऊँ। पर ऐसा करने में मेरी लाज जाती, और जिन शिक्षक ने मेरी लगन पर भरोसा करके मुझे चढानेकी सिफारिश की थी उनकी भी लाज जाती। इस भय से नीचे जाने का विचार तो छोड़ ही दिया। जब प्रयत्न करते करते मैं युक्लिड के तेरहवें प्रमेय तक पहुँचा,तो अचानक मुझे बोध हुआ कि भूमिति तो सरल से सरल विषय हैं। जिसमें केवल बुद्धि का सीधा और सरल प्रयोग ही करना हैं, उसमें कठिनाई क्या हैं? उसकेबाद तो भूमिति मेरे लिए सदा ही सरल और सरस विषय बना रहा।

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