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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...


जिन दिनोंमैं इन मित्र के संपर्क में आया, उन दिनों राजकोट में सुधारपंथ का जोर था। मुझे इन मित्र ने बताया कि कई हिन्दू शिक्षक छिपे-छिपे माँसाहार औरमद्यपान करते हैं। उन्होंने रोजकोट के दूसरे प्रसिद्ध गृहस्थों के नाम भी दिये। मेरे सामने हाईस्कूल में कुछ विद्यार्थियों के नाम भी आये। मुझे तोआश्चर्य हुआ और दुःख भी। कारण पूछने पर यह दलील दी गयी: 'हम माँसाहार नहीं करते इसलिए प्रजा के रुप में हम निर्वीर्य हैं। अंग्रेज हम पर इसलिए राज्यकरते हैं कि वे माँसाहारी हैं। मैं कितना मजबूत हूँ और कितना दौड़ सकता हूँ, सो तो तुम जानते ही हो। इसका कारण माँसाहार ही हैं। माँसाहारी कोफोड़े नहीं होते, होने पर झट अच्छे हो जाते हैं। हमारे शिक्षक माँस खाते हैं। इतने प्रसिद्ध व्यक्ति खाते हैं? सो क्या बिना समझे खाते हैं?तुम्हें भी खाना चाहिये। खाकर देखो कि तुममे कितनी ताकत आ जाती हैं।'

ये सब दलीलें किसी एक दिन नहीं दी गयी थी। अनेक उदाहरणों से सजाकर इस तरह कीदलीलें कई बार दी गयीं। मेरे मझले भाई तो भ्रष्ट हो चुके थे। उन्होंने इन दलीलों की पुष्टि की। अपने भाई की तुलना में मैं तो बहुत दुबला था। उनकेशरीर अधिक गठीले थे। उनका शaरीरिक बल मुझसे कहीं ज्यादा था। वे हिम्मतवर थे। इन मित्र के पराक्रम मुझे मुग्ध कर देते थे। वे मनचाहा दौड़ सकते थे।उनकी गति बहुत अच्छी थी। वे खूब लम्बा और ऊँचा कूद सकते थे। मार सहन करने की शक्ति भी उनमें खूब थी। अपनी इस शक्ति का प्रदर्शन भी वे मेरे सामनेसमय-समय पर करते थे। जो शक्ति अपने में नहीं होती, उसे दूसरों में देखकर मनुष्य को आश्चर्य होता ही हैं। मुझ में दौड़ने-कूदने की शक्ति नहीं केबराबर थी। मैं सोचा करता कि मैं भी बलबान बन जाउँ, तो कितना अच्छा हो !

इसके अलावा मैं डरपोक था। चोर, भूत, साँप आदि के डर से घिरा रहता था। ये डरमुझे हैरान भी करते थे। रात कहीं अकेले जाने की हिम्मत नहीं थीं। अंधरे में तो कहीं जाता ही न था। दीये के बिना सोना लगभग असंभव था। कहीं इधर सेभूत न आ जाये, उधर से चोर न आ जाये और तीसरी जगह से साँप न निकल आये ! इसलिए बत्ती की जरुरत तो रहती ही थी। पास में सोयी हुई और अब कुछ सयानीबनी हूई पत्नी से भी अपने इस डर की बात मैं कैसे करता? मैं यह समझ चुका था कि वह मुझ से ज्यादा हिम्मतवाली हैं और इसलिए मैं शरमाता था। साँप आदि सेडरना तो वह जानती ही न थी। अंधेरे में वह अकेली चली जाती थी। मेरे ये मित्र मेरी इन कमजोरियों को जानते थे। मुझसे कहा करते थे कि वे तो जिन्दासाँपो को भी हाथ से पकड़ लेते थे। चोर से कभी नहीं डरते। भूत को तो मानते ही नहीं। उन्होंने मुझे जँचाया कि यह प्रताप माँसाहार का हैं। इन्हींदिनों नर्मद (गुजराती की नवीनधारा प्रसिद्ध कवि नर्मद, 1833-86) का नीचे लिखा पद गया जाता था :

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