जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
'कह तो सही, बात क्या हैं?'
'बापू गुजर गये!'
मेरा पछताना किस काम आता? मैं बहुत शरमाया। बहुत दुःखी हुआ। दौड़कर पिताजी केकमरे में पहुँचा। बात समझ में आयी कि अगर मैं विषयान्ध न होता तो इस अन्तिम घड़ी में यह वियोग मुझे नसीब न होता औऱ मैं अन्त समय तक पिताजी केपैर दबाता रहता। अब तो मुझे चाचाजी के मुँह से सुनना पड़ा : 'बापू हमें छोड़कर चले गये !' अपने बड़े भाई के परम भक्त चाचाजी अंतिम सेवा का गौरवपा गये। पिताजी को अपने अवसान का अन्दाजा हो चुका था। उन्होंने इशारा करके लिखने का सामान मँगाया और कागज में लिखा: 'तैयारी करो।' इतना लिखकरउन्होंने हाथ पर बँधा तावीज तोड़कर पेंक दिया, सोने की कण्ठी भी तोड़कर फेंक दी और एक क्षण में आत्मा उड़ गयी।
पिछले अध्याय में मैंने अपनी जिस शरम का जिक्र किया हैं वह यहीं शरम हों -- सेवा के समय भी विषयकी इच्छा ! इस काले दाग को आज तक नहीं मिटा सका। और मैंने हमेशा माना हैं कि यद्यपि माता-पिता के प्रति मेरा अपार भक्ति थी, उसके लिए सब कुछ छोड़सकता था, तथापि सेवा के समय भी मेरा मन विषय को छोड़ नहीं सकता था। यह सेवा में रही हुई अक्षम्य त्रुटि थी। इसी से मैंने अपने की एकपत्नी-व्रतका पालन करने वाला मानते हुए भी विषयान्ध माना हैं। इससे मुक्त होनें में मुझे बहुत समय लगा और मुक्त होने से पहले कई धर्म-संकट सहने पड़े।
अपनी इस दोहरी शरम की चर्चा समाप्त करने से पहले मैं यह भी कह दूँ कि पत्नी केजो बालक जनमा वह दो-चार दिन जीकर चला गया। कोई दूसरा परिणाम हो भी क्या सकता था? जिन माँ-बापों को अथवा जिन बाल-दम्पती को चेतना हो, वे इसदृष्टान्त से चेते।
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