इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
पृष्ठ ३८ पर मौलवी कहते हैं- "इन कक्षों के पश्चिम में एक मस्जिद है, जिसमें ५३९ श्रद्धालु समा सकते हैं।" हमें यह आश्चर्य होता है कि इस अंक ५३९ की कोई विशेषता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रासाद के सिंहासन-कक्ष के पार्श्वस्थ आरक्षी-निवास ही आज की वह निर्दिष्ट मस्जिद है। यदि यह मस्जिद होती तो इसमें समा सकनेवाले मनुष्यों की संख्या सम, जैसे १,००० या १०,००० होती, ५३९ जैसी विषम नहीं।
ताजमहल के खुले चबूतरे के चारों कोनों पर स्थित संगमरमर की चार मीनारें हिन्दू प्रासाद के अनुसार चौकीदारी और प्रकाश-स्तम्भ दोनों ही काम में लाने के लिए हैं। रात्रि के समय शून्याकाश में अपने प्रकाश से चमकते हुए इन चार मीनारों के मध्य जगमगाता हुआ अति प्रकाशमान यह प्रासाद ऐसा अद्भुत प्रतीत होता था मानो उन चार मीनारों से जुड़ा हुआ हो।
भारत-अरब शिल्पकला के सिद्धान्त में अन्धानुयायी इससे अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं कि नींव अथवा चबूतरे से प्रारम्भ होनेवाली मीनारें प्राचीन भारतीय शिल्पकला की ही विशेषता हैं। अरब शैली की मीनारें तो भवन के स्कन्धों से आरम्भ होती हैं जैसा कि मस्जिदों में देखा जाता है और सामान्यतया ऐसी मीनारें न तो भीतर से खोखली होती है और न उनमें सीढ़ियाँ ही होती हैं। अनेक अन्य प्रमाणों के अतिरिक्त यह भी एक प्रमाण है जो तथाकथित कुतुबमीनार तथा ताजमहल की चार मीनारों के सम्बन्ध में पारम्परिक मुस्लिम दावे को झूठा सिद्ध करता है।
मन्दिर में पूजास्थल के रूप में, चाहे वह राजा द्वारा हो अथवा जन-सामान्य द्वारा, स्तम्भ-पीठ को चार मीनारोंवाला बनाना जगविख्यात प्राचीन भारतीय पद्धति है।
कनिंघम का यह कहना कि प्रथम बार हुमायूँ के स्मारक में चार कोनों में चार मीनारें देखी गई, ब्रिटिश विद्वानों की सरलता का द्योतक है। यह मानने की अपेक्षा कि हुमायूँ का मकबरा एक पूर्ववर्ती हिन्दू प्रासाद है, जिसमें दूसरी पीढ़ी का मुगल बादशाह दफनाया गया है, वे अपने इस अनुमान से आरम्भ करते हैं कि वह विशाल भवन उसके दफनाए जाने के कारण बनाया गया। उसके बाद उनका ध्यान उसकी चार मीनारों की ओर जाता है और उनको वे मुसलमानी शिल्पकला की नवीन पद्धति के रूप में चित्रित करते हैं। उसके बाद वे कल्पना करते हैं कि इन मीनारों की निर्माण-पद्धति में विकास हुआ और तब उनको प्रत्येक सम्राट् के मरने पर शनैः-शनैः मुख्य भवन से कुछ दूरी पर बनाया जाने लगा जिससे कि मुमताज की मृत्यु के समय तक वे स्तम्भपीठ के कोने पर बनने लगीं। यदि इसे इसी रूप में मान लिया जाय तो विकास के बीच की वे कड़ियाँ कहाँ हैं?
ब्रिटिश विद्वानों के, जो कि मुस्लिम इतिहास के प्रपंचों में फँसे हैं, भद्दे अनुमानों की ओर इंगित करने के उपरान्त हम पाठकों का ध्यान कनिंघम के निष्कर्षों के सत्यांश की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं।
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