इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
परिणामस्वरूप सैकड़ों वर्षों के बाद आज हम निराशापूर्वक पाते हैं कि वह सब जिसे हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह पढ़ाते आए हैं कि भारत में मुस्लिम वास्तुकला भी थी और उनका उदार शासन था, यह सब भूलना पड़ेगा।
ताजमहल सम्बन्धी शाहजहाँ की पुराणकथा के विभिन्न कथनों के पुनरीक्षण की आवश्यकता इसलिए है कि संसार को इस सुरम्य भवन के विषय में सत्यता का ज्ञान होना ही चाहिए, विशेषतया यह तथ्य कि ताजमहल का जन्म शाहजहाँ की रखेल मुमताज की मृत्यु पर हुआ था। शाहजहाँ और मुमताज के प्रेत विगत ३०० वर्षों से ताजमहल के कथानक द्वारा जनसाधारण को परेशान किए हुए हैं। बहुत समय तक पाठकों के मस्तिष्क को कुण्ठित किया गया है। ताजमहल के निर्माण सम्बन्धी तथ्य-उद्घाटन का एक यह भी कारण हमारे मस्तिष्क में है कि जिस अप्रायोगिक और अस्थिर प्रक्रिया के कारण भारतीय इतिहास तथा भ्रमित, सन्देहशाक्तिशून्य समकालीन जन तथा भावी पीढ़ी पर जो दूरगामी कुप्रभाव थोपे गए हैं, उनका निराकरण करें। ताजमहल की मौलिकता के सम्बन्ध में पुनर्विचार अन्वेषण-प्रक्रिया को प्रायोगिक पाठ पढ़ाएगा। अब तक किए गए गलत काम, इतिहास-अन्वेषकों तथा अध्यापकों द्वारा जिन सिद्धान्तों एवं सुविधाओं को ध्यान में रखा है उनका पर्दाफाश भी हो जाएगा।
इस पुस्तक का यह भी उद्देश्य है कि प्रत्येक पाठक यह भली भाँति समझ ले कि यह केवल मकबरा नहीं जो उनको बरबस आकर्षित करता है। दर्शक सारे परिसर को देखे, लम्बे मेहराबोंवाले गलियारों में जाए, ताजमहल की सभी मंजिलों और इसके संगमरमर तथा लाल पत्थर की मीनारों पर जाए, सूक्ष्मता से बन्द दरवाजों का निरीक्षण करे, भूमिगत दो मकबरे और पहली मंजिल पर उनके ऊपर के गुम्बद, इस अष्टभुजी हिन्दू प्रासाद में यदि कुछ दिखाई देते हैं तो केवल रुकावट ही दिखाई देते हैं। इन्हीं में से एक कक्ष में प्राचीन मयूराकार सिंहासन रखा रहता था। प्रासाद के साथ ही उसे भी शाहजहाँ ने हथिया लिया था।
वे विचारशील पाठक जिन्होंने यद्यपि अज्ञानता से किन्तु अखण्डनीयता से ताजमहल को अपनी शिक्षा अथवा सामाजिकता के आधार पर मुस्लिम-स्मारक स्वीकार किया है, इस पुस्तक को पढ़ने पर अब कदाचित् स्वयं को विचलित, अस्थिर तथा आहत अनुभव करेंगे। कुछ अन्य पाठक ताजमहल के प्राचीन हिन्दू मूल के रूप में अन्वेषण को सत्यता मान उसका स्वागत करेंगे। दोनों ही प्रकार के पाठकों से हम कहना चाहते हैं कि हमारी दृष्टि में सत्य जल की भाँति स्वादरहित, वर्णरहित, दिव्य, विशुद्ध और जीवनप्रदायक होता है। वह न मीठा होता है और न कड़वा। हमारे लिए सत्य केवल अन्वेषण का आधार है जैसाकि वास्तव में इसे सभी रचनात्मक कार्यों में होना चाहिए। हमें उनकी तनिक भी चिन्ता नहीं है कि ताजमहल के हिन्दू-पूर्व रूप के अन्वेषण से जिन्हें उत्तेजना अथवा निराशा हुई है। इतिहास के संसार में इस प्रकार का श्वासावरोध करनेवाला, यह सिद्ध करने वाला कि सारा संसार गलती पर है, कदाचित् ही सम्भव है। एक ही बात है, हम अपने लिए कोई वैयक्तिक श्रेय अथवा विजय का अधिकार नहीं मांगते, क्योंकि ऐसी खोज परमात्मा के पथप्रदर्शन, सुअवसर तथा प्रेरणा के बिना सम्भव नहीं। किन्तु हम उनसे जो हमारे प्रयत्नों को महत्त्वहीन समझते हैं और हमारी खिल्ली उड़ाते हैं कि ताजमहल का-इसके सुन्दर परिसर, शोभनीय दीवारों तथा सुरम्यता का कोई महत्त्व नहीं है, कुछ शब्द कहना चाहते हैं। ताजमहल को मकबरा या प्रासाद समझने से द्विविधा होती है। प्रासाद उसको कहते हैं जो किसी समृद्ध, धनी और शक्तिशाली का निवास हो, इसलिए वह भव्य और विशाल होता है। दूसरी ओर, मकबरा यह अद्भुत और विलक्षण निवास है उनका जिनकी आत्मा कूच कर चुकी है। जो दर्शक अथवा अध्येता इस धारणा के अन्तर्गत यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि ताजमहल मकबरा है, इसके भीतर की कब्रों की प्रशंसा को मुख्य उद्देश्य मानकर ताजमहल परिसर की वास्तविक सुन्दरता से वंचित रह जाते हैं। दूसरी ओर यदि दर्शक और इतिहास के अध्येता ताजमहल का उसके प्रासाद के रूप में अध्ययन करें तो उन्हें इसमें आनन्ददायक सफलता मिलेगी। इस स्थिति में उनकी दफ्नगाह की ओर जाने की इच्छा ही होगी और वे उस विशाल परिसर में उसकी परिधि का भ्रमण, उसके गलियारों का आनन्द, अन्धकारयुक्त भूगर्भ में ठोकरें खाना और उसके मीनारों तथा ऊपरी मंजिलों पर चढ़ने में ही आनन्द अनुभव करते अपना दिन व्यतीत कर देंगे।
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- प्राक्कथन
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