इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
"जो बहुमूल्य रत्न इसमें लगाए गए उनमें बगदाद से लाए गए ५४० लाल मणि, ऊपरी तिब्बत से लाए गए ६७० नील मणि, रूस से लाए गए ६१४ हरित मणि, दक्षिण से लाए गए ५५९ गोमेदक मणि तथा मध्य भारत से लाए गए ६२५ हीरे थे ताज का निर्माण-कार्य १६३२ में प्रारम्भ हुआ था और १६५० तक भी पूर्ण नहीं हुआ था। ऐसा विश्वास किया जाता है कि ताजमहल की लागत १ करोड ५० लाख से अधिक थी जो आज के मूल्य-सूची अंक के आधार पर उसकी दस गुनी होती है। उसमें से दो-तिहाई तो राज्य कोष से दिया गया था और एक-तिहाई विभिन्न प्रान्तों के राज्य-कोष से दिया गया था। विभिन्न भागों में व्यय किए गए धनराशि के आँकडे उनसे सम्बन्धित कागज-पत्रों में सावधानी से अंकित किए गए हैं जो आज भी उपलब्ध हैं।
शाहजहाँ जो अपनी बादशाहत में भव्य था, अपने शौक में भी यह उतना ही भव्य था। अपनी अतिप्रिय प्रेयसी की स्मृति को स्थायी रखने के लिए शाहजहाँ ने यह स्मारक बनवाया। इतिहास में अपने नाम तथा प्रशस्ति के लिए इसके निर्माण का निश्चय किया। ३०० वर्ष बाद आज भी यह शिल्पकला की चरम उपलब्धि के रूप में प्रतिष्ठित है।"
अब हम उपरि उद्भुत लेख का सूक्ष्म परीक्षण करते हैं। जो माप के परिमाण प्रस्तुत किए गए हैं, वे पूर्ववर्ती हिन्दू राजप्रासाद से जो आज हमारे सम्मुख ताजमहल के रूप में स्थित हैं, कभी भी लेकर किसी भी रचना के कलेवर में ढूंसे जा सकते थे।
यह विवरण कि किस प्रकार भव्य भवन बनाया गया, वह स्पष्ट तथा उन समकालीन वास्तुकारों से, जो यह सब देख सकने का दावा करते थे, लिया गया प्रतीत होता है।
जहाँ तक ५०० बढ़ई, ३०० लोहार तथा ऐसे ही अन्य श्रमिकों की नियक्ति की बात है, उसमें हमारा कोई विशेष आक्षेप नहीं है, क्योंकि विशाल हिन्दू राजप्रासाद को जो कि आजकल ताजमहल है, मुसलमानी मकबरे में बदलने के लिए मचान लगाने में ही इतने श्रमिकों की आवश्यकता पड़ सकती थी।
जब वह वास्तुकारों के परिचय पर आता है, लेख में इस विषय पर कोई नया प्रकाश नहीं डाला गया है। उसमें केवल कुछ पुराने नामों की ही पुनरावृत्ति की गई है और जैसाकि हमने पहले उल्लेख किया है कि वे सब नाम सत्य हो सकते हैं, क्योंकि कम-से-कम उन नामों के व्यक्ति तो रहे ही होंगे जिन्होंने हिन्दू प्रासाद को एक मुस्लिम मकबरे के रूप में परिवर्तित करने में सहयोग दिया था।
और जहाँ तक दूरस्थ यमुना नदी के कृत्रिम रूप से ताजमहल के पार्श्व में बहने की बात है, इस सम्बन्ध में जितना कहा जाय वह कम है। क्योंकि मुस्लिम शासन में इस प्रकार की कला का सर्वथा अभाव था। निरन्तर लूट-खसोट और नरसंहार में संलग्न मुसलमानों के शासनकाल में जो थोड़ी पाठशालाएँ थीं भी तो उनमें केवल कुछ अशिक्षित हठधर्मियों को कुरान की शिक्षा ही दी जाती थी। हम पुनः यही स्पष्ट रूप से कहना चाहते हैं कि प्राचीन अथवा मध्ययुगीन मुस्लिम साहित्य में वास्तुकला पर एक भी पुस्तक उपलब्ध नहीं है जिससे यह दावा सिद्ध हो सके कि वे वास्तुविद्या या नागरिक अभियान्त्रिकी के विषय में भी कुछ जानते थे। इसके विपरीत हम भारतीय हिन्दू शिल्पकला की अपने ग्रन्थों की ऐसी सूची प्रस्तुत कर सकते हैं जिसमें न केवल इस विद्या के सभी पहलुओं पर विचार किया गया है अपितु जो आज के युग में भी उस समय की हिन्दू शिल्पकला की श्रेष्ठता सिद्ध करती है। आश्चर्य नहीं कि प्राचीन हिन्दू शिल्पकला तथा अभियान्त्रिकी-कौशल का ही यह सुपरिणाम है कि अजमेर, जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर के पहाड़ी दुर्गों तथा कोणार्क, खजुराहो, सोमनाथ, अजन्ता, एलोरा, मदुरा, मार्तण्ड और मोधेरा आदि जैसे कुछ की विस्मयजनक भव्यता आज भी उसी रूप में विद्यमान है।
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- प्राक्कथन
- पूर्ववृत्त के पुनर्परीक्षण की आवश्यकता
- शाहजहाँ के बादशाहनामे को स्वीकारोक्ति
- टैवर्नियर का साक्ष्य
- औरंगजेब का पत्र तथा सद्य:सम्पन्न उत्खनन
- पीटर मुण्डी का साक्ष्य
- शाहजहाँ-सम्बन्धी गल्पों का ताजा उदाहरण
- एक अन्य भ्रान्त विवरण
- विश्व ज्ञान-कोश के उदाहरण
- बादशाहनामे का विवेचन
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- ताजमहल की लागत
- ताजमहल के आकार-प्रकार का निर्माता कौन?
- ताजमहल का निर्माण हिन्दू वास्तुशिल्प के अनुसार
- शाहजहाँ भावुकता-शून्य था
- शाहजहाँ का शासनकाल न स्वर्णिम न शान्तिमय
- बाबर ताजमहल में रहा था
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- ताज की रानी
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- प्रख्यात मयूर-सिंहासन हिन्दू कलाकृति
- दन्तकथा की असंगतियाँ
- साक्ष्यों का संतुलन-पत्र
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- कुछ फोटोग्राफ