इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
बादशाहनामे का विवेचन
जो उदाहरण पिछले अध्यायों में उद्धृत किए गए हैं वे पाठकों को यह विश्वास दिलाने के लिए पर्याप्त होंगे कि ताजमहल से सम्बन्धित शाहजहाँई कथाएँ भ्रमजाल हैं। ज्यों-ज्यों आप उनकी गहराई में जाएंगे, त्यों-त्यों आप भ्रम में फंसते जाएंगे, जैसाकि पहले बताया जा चुका है वे एक ऐसा अथाह गर्त निर्माण करती हैं कि जिसकी थाह पाना किसी के लिए संभव नहीं है। अपने दैनंदिन के अनुभव से हम जानते हैं कि कोई आधारभूत असत्य बाद के असत्य द्वारा न तो छिपाया जा सकता है और न सत्य सिद्ध किया जा सकता है। ऐसा असत्य बढ़ता हुआ भ्रमजाल का निर्माण कर देता है, ताजमहल के सम्बन्ध में ऐसा ही कुछ हुआ है।
ताजमहल सम्बन्धी शाहजहाँई कथा के उन सभी विभिन्न स्रोतों का सर्वेक्षण करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि शाहजहाँ का दरबारी इतिहास- लेखक, मुल्ला अब्दुल हमीद लाहोरी, जो यह स्वीकार करता है कि ताजमहल हिन्दू प्रासाद था, ही केवल एक ईमानदार है।
अत: हमें उसके इतिहास का किंचित् सूक्ष्मरूपेण निरीक्षण करने दीजिए। ताजमहल के मूल निर्माण के सम्बन्ध में यह सारा भ्रम इस कारण उत्पन्न हुआ, क्योंकि इतिहासकारों ने बादशाहनामे के प्रथम भाग के पृष्ठ ४०३ पर अंकित शब्दों की पूर्णतया उपेक्षा कर दी। कदाचित् उसके शब्दों की उपेक्षा इसलिए की गई कि इतिहासकार ताजमहल को मूलतः प्रेम के स्वप्नलोक की स्मृति मानने का मोह सँजोये हुए थे। अब हम उसको अधिकाधिक ईमानदार और सत्ययुक्त मानते हैं। बादशाहनामे में ताजमहल का जो विवरण दिया गया है उस पर जरा हमें एक और सूक्ष्मता से दृष्टिपात करने दीजिए।
प्रथम प्रश्न जो ध्यान देने योग्य है वह है कि जब पारस्परिक कथन हमें यह बताता है कि शाहजहाँ ने ताजमहल के निर्माण के लिए जयसिंह से एक खुला मैदान खरीदा और उस पर एक प्रासाद बनवाया, तब मुल्ला अब्दुल हमीद अपने बादशाहनामे के द्वारा निष्पक्षता से हमें बताता है कि वह जयसिंह था जिसे अपने भव्य (मंजिल, आल्त मंजिल, इमारतें आलीशान वा गुम्बजें) गुम्बदयुक्त पैतृक प्रासाद के विनिमय में खुली जमीन प्राप्त हुई थी। हमें यह भी बताया गया कि इस भवन के चारों ओर हरा-भरा (सब्ज जमीनी) विशाल उद्यान था।
यदि शाहजहाँ किसी नव-निर्माण का ही अभिलाषी था तो क्या वह किसी ऐसे स्थान को चुनता जिस पर भव्य प्रासाद विद्यमान था? उस राजप्रासाद को ध्वस्त करना और उसकी नींव उखाड़कर दूसरी भरना बहुत ही विशाल कार्य होता। उस मलबे को उठाना व्ययसाध्य और अत्यन्त श्रमसाध्य होता। ऐसे कार्य में शाहजहाँ अपने समय और धन का अपव्यय क्यों करता जबकि उसके पास दूसरा खुला स्थान था जो कि उसने विनिमय में दिया बताया जाता है? यह विनिमय क्या सिद्ध करता है? क्या यह, यह सिद्ध नहीं करता कि शाहजहाँ यह चाहता था कि जयसिंह अपने लिए दूसरा प्रासाद बनवा ले जबकि शाहजहाँ ने उसका पैतृक प्रासाद अपनी बेगम के लिए बने-बनाए मकबरे के लिए देने को बाध्य किया ओर इसके साथ ही उसने उसी तौर से एक हिन्दू राजपूत-परिवार को उसके अधिकारों से वंचित करके उसकी अपार सम्पत्ति पर अनधिकृत अधिकार कर लिया? क्या यह मुसलमानों की भारत में स्थायी परम्परा नहीं रही कि वे हिन्दुओं की सम्पत्ति पर अधिकर कर लिया करते थे और क्या शाहजहाँ स्वयं उच्छृखल व्यवहारकर्ता नहीं था? यह तथा ऐसी अन्य सभी बातों पर हम आगामी किसी अध्याय में प्रकाश डालेंगे।
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- प्राक्कथन
- पूर्ववृत्त के पुनर्परीक्षण की आवश्यकता
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- टैवर्नियर का साक्ष्य
- औरंगजेब का पत्र तथा सद्य:सम्पन्न उत्खनन
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- कुछ फोटोग्राफ