इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
जो पाश्चात्य विद्वान् रोमियो-जूलियट जैसी ही गाथा के अनुरूप शाहजहाँ और मुमताज की कथित प्रेम-गाथा से प्रभावित हो गए, वे उन प्रेमालापों के साथ-साथ शाहजहाँ की निष्ठुरता का वर्णन कदापि न करते। मुस्लिम-वर्णन की जालसाजी और धोखे में आनेवाले पाश्चात्य विद्वानों ने जहाँ एक ओर मुमताज़ के वियोग में अभिभूत(?) शाहजहाँ द्वारा ताज-निर्माण की भ्रमयुक्त मान्यता स्वीकार की है वहाँ दूसरी ओर उसकी निष्ठुरता का उल्लेख करने को वे इसलिए विवश हो गए कि इसके आँखों देखे प्रमाण उन्हें उपलब्ध थे।
मुस्लिम इतिहास भी शिल्पियों के हाथ काटे जाने का उल्लेख करता है, किन्तु कुछ भिन्नता के साथ। शाहजहाँ द्वारा शिल्पियों पर की गई क्रूरता को वे रोमांटिक रूप प्रदान करते हैं। उनका सुझाव है कि शाहजहाँ ने उनके हाथ इसलिए कटवा दिए कि कोई अन्य व्यक्ति उनकी इस कला का दुरुपयोग कर ताजमहल का दूसरा प्रतिस्पर्धी न तैयार करवा ले। किसी ने भी इस मूर्खतापूर्ण कथानक का सूक्ष्म विश्लेषण नहीं किया। प्रथमतः, क्या कोई भी बादशाह जो ऐसी सौंदर्य-भावना रखता हो कि ताजमहल जैसे भव्य भवन का निर्माण करा ले, कभी इतना निर्मम हो सकता है कि जिन हाथों ने उसके लिए श्रम किया हो उनको ही वह क्रूरता के साथ कटवा दे? द्वितीयतः, क्या कोई बादशाह जो पत्नी के वियोग में दुःखी हो, वह क्या इतना कठोर होगा कि जिन्होंने उसकी प्रिय पत्नी का मकबरा बनाया उन्हीं को वह पिटवाए ? तृतीयतः, क्या ताजमहल जैसे भव्य भवन का निर्माण ऐसा साधारण कार्य है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पत्नी की मृत्यु पर उन्हीं सब कारीगरों को बुलाकर उन्हें दूसरा ताजमहल बनाने पर नियुक्त करे? किसके पास इतना धन और वैसा ही काल्पनिक प्रेम है अपनी पत्नी के लिए और यहाँ तक कि स्वप्न में भी सोच सके अपनी पत्नी के लिए ताजमहल का निर्माण? स्पष्टतया श्रमिकों को दिए गए शारीरिक कष्टों को प्रेमगाथा का अलंकरण बनाना झूठे इस्लामी इतिहासज्ञों की निर्लज्ज एवं निन्द्य प्रथा का यह ज्वलन्त उदाहरण है। हिन्दू राजभवन को मकबरे में परिवर्तित करने की वास्तविकता पर पर्दा डालने के उद्देश्य से इस प्रकार की रोमांटिक बुद्धिहीनता का उल्लेख किया गया प्रतीत होता है। बिना पारिश्रमिक के के प्रतिदिन काम किए जानेवाले शिल्पियों के विद्रोह को कुचलने के लिए ही इस प्रकार की क्रूरता का व्यवहार किया गया था।
घटनावश, केवल स्वल्प भोजन के विनिमय में शाहजहाँ द्वारा बलात् कार्य करवाना यह सिद्ध करता है कि अपहृत हिन्दू भवन में साधारण परिवर्तन तथा आयतें खुदवाना ही अपेक्षित था। केवल दाल-रोटी पर और चाबुक का भय दिखाकर निरन्तर २२ वर्ष तक काम करवाते हुए कोई ऐसे भव्य भवन का निर्माण नहीं करा सकता।
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