इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
भारतीय इतिहास की दयनीय स्थिति यह है कि मध्ययुगीन मुसलमानी इतिहासों में प्राचीन स्मारकों के निर्माण का निराधाररूपेण मुसलमान बादशाहों को दिए गए श्रेय को किसी ने चुनौती नहीं दी, यह इस कारण कि तत्कालीन अंग्रेज शासकों को उसको चुनौती देने में किसी प्रकार की रुचि नहीं थी, क्योंकि शासक होने के नाते उनका प्रमुख उद्देश्य था अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति द्वारा भारतीयों को प्रशिक्षित करके उनसे प्रशासन की सेवा ली जाए। अतः किसी भारतीय को यह साहस नहीं होता था कि वह इसका विरोध करे। इससे उनकी इतिहास की उपाधि छिन जाने से आजीविका को खतरा था। जिन्होंने इतिहास का अध्ययन नहीं किया था वे इस स्थिति में नहीं थे कि जिससे वे जान सकें-भावी पीढ़ी को जो भारतीय इतिहास पढ़ाया जा रहा है वह पूर्णतया विकृत और अशुद्ध है। अतः भारतीय इतिहास और जन-सामान्य का जो इतिहास उनको पढ़ाया जा रहा था उसको चुनौती देने की स्थिति में वे नहीं थे।
परिणामत: अंग्रेजी प्रशासन किसी भी प्रकार इस तथ्य से परिचित था कि भारतीय इतिहास को बड़े पैमाने पर विकृत किया गया है। इसलिए, जब कभी भी प्राचीन भवनों के सम्बन्ध में उनके हितों पर चोट पहुंची तो उन्होंने तुरन्त जांच- पड़ताल के आदेश दिए, क्योंकि वे जानते थे कि इसका परिणाम उनके ही पक्ष में होगा। एक ऐसा उदाहरण 'ट्रांजेक्शन्स ऑफ आर्योलोजिकल सोसाइटी ऑफ आगरा'* में उल्लिखित है। यह सह-सचिव द्वारा मुबारक मंजिल या ओल्ड कस्टम हाउस पर लिखित रिपोर्ट है। उसने लिखा है-"इस बात की जाँच कर उस पर रिपोर्ट देने के लिए कि बालीगंज में कस्टम हाउस द्वारा अधिकृत भवन मूलतः मुस्लिम मस्जिद है या नहीं, मैं इस प्रकार कहना चाहूंगा : विवादास्पद भवन मूलतः मुसलमानी मस्जिद नहीं प्रतीत होती"ऐसा प्रतीत होता है कि इस भवन का नाम मुबारक मंजिल इसलिए पड़ा, क्योंकि दक्षिण में औरंगजेब की टुकड़ियों को जो विजय प्राप्त हुई उसकी सूचना बादशाह औरंगजेब को इस स्थान पर प्राप्त हुई थी जहाँ कि उसने पड़ाव डाला था। भवन के एक भाग में यद्यपि ऐसे लक्षण विद्यमान हैं कि जैसे प्रार्थना-स्थल बनाया गया हो, किन्तु ऐसा तो मुसलमान बादशाहों ने सदा ही किया।"
* ट्रांजेक्शन्स ऑफ आयोलोजिकल सोसाइटी ऑफ आगरा, जनवरी से जून १८७८
ये शब्द कि "ऐसा तो मुसलमान बादशाहों ने सदा ही किया" विशेष ध्यान देने योग्य हैं। इस प्रकार उपरिउद्धृत मुबारक मंजिल स्पष्टतया प्राचीन राजपूत भवन है जिसे अंग्रेजों ने मुगल शासकों से उत्तराधिकार में प्राप्त किया। विद्यमान मध्ययुगीन समस्त स्मारकों के सम्बन्ध में यदि इस प्रकार की जाँच की जाए तो वे सहज ही मूलरूप से राजपूती भवन, दुर्ग और मन्दिर सिद्ध होंगे। मुसलमानों की विजय एवं अपहरण के कारण उनको मुसलमानों द्वारा बनाए गए मौलिक मस्जिद, मकबरा और दुर्ग माना जाने लगा। सम्पूर्ण भारत में निर्जन प्रान्तों, मैदानों और सड़कों के किनारे मीनारों से युक्त इकहरी दीवारें, कब्र की आकृति के मिट्टी के टीले आदि जो दृष्टिगोचर होते हैं, वे सब या तो हिन्दू स्मारकों के अवशेष हैं या फिर उन पर बनाई गई कब्रें हैं।
ऐतिहासिक प्रवर्तन के अभाव का एक अन्य उदाहरण, जिसके कारण अंग्रेज विद्वानों द्वारा मध्ययुगीन स्मारकों के सम्बन्ध में इतिहास का पुनर्निर्माण सम्भव नहीं हो सका और मुसलमानी दावों के अनुसार ही उन्हें स्वीकार किया गया, यह हमें 'ट्रांजेक्शन्स ऑफ आयोलोजिकल सोसाइटी ऑफ आगरा'* जुलाई से दिसम्बर १८७५ के अंक में प्राप्त होता है। उस अंक में सलीमगढ़ की व्याख्या करते लिखा है-"तोपचियों की बैरकों के सामने तथा दीवान-ए-आम के विशाल प्रांगण के समीप स्पष्टतया एक सर्वथा एकाकी एवं उद्देश्यहीन चतुर्भुजाकार भवन है"जहाँगीरी महल की ही भाँति यह भी हिन्दुओं की पद्धति से सज्जित है परम्परा के पास इसको नाम देने के अतिरिक्त अन्य कुछ कहने को नहीं है।"
* पुस्तक के पृष्ठ १४ पर।
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- पूर्ववृत्त के पुनर्परीक्षण की आवश्यकता
- शाहजहाँ के बादशाहनामे को स्वीकारोक्ति
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- औरंगजेब का पत्र तथा सद्य:सम्पन्न उत्खनन
- पीटर मुण्डी का साक्ष्य
- शाहजहाँ-सम्बन्धी गल्पों का ताजा उदाहरण
- एक अन्य भ्रान्त विवरण
- विश्व ज्ञान-कोश के उदाहरण
- बादशाहनामे का विवेचन
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- दन्तकथा की असंगतियाँ
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- आनुसंधानिक प्रक्रिया
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