इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
यह भ्रान्त धारणा है कि मध्ययुगीन स्मारक मुसलमानी निर्माण कार्य हैं, क्योंकि वे मकबरे और मस्जिदें जैसे दिखाई देते हैं, किन्तु सुदीर्घ काल और परम्परा से उनको मुसलमानी मकबरे आदि माने जाने के कारण भारतीय इतिहास में एक भ्रान्त धारणा जड़बद्ध हो गई है। तदपि पाश्चात्य विद्वान् यह कहते हुए सत्य के निकट प्रतीत होते हैं कि मुस्लिम जैसे दिखाई देनेवाले भवन पूर्ववर्ती हिन्दू भवनों की भाँति स्तम्भों, चौखटों और मेहराबोंवाले हैं। हम यहाँ पर एक अंग्रेज दर्शक का उल्लेखनीय निष्कर्ष उद्धृत करते हैं। वह लिखता है-"आदिलशाही-करीमुद्दीन के अधीन लगभग १३१६-से पूर्व मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिन्दू भवन के अवशेष पर बीजापुर के दुर्ग में एक मस्जिद बनवाई थी। दूसरे भवनों के टूटे स्तम्भों का उन्होंने कितना उपयोग किया, इस विषय में हमें कहीं से कोई सूचना नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह हिन्दू मन्दिर के द्वार मण्डप के अंग से बना है, किन्तु यह अनुमान भी असंगत नहीं कि मूल स्थान से दूसरे हिस्सों को भी हटाया गया होगा और अपने विद्यमान उद्देश्य की पूर्ति के लिए उनको पुन: स्थापित भी किया गया होगा।
उपरिलिखित उद्धरण से स्पष्ट होता है कि पाश्चात्य विद्वान् सत्य के समीप पहुँचकर भी उसे ग्रहण करने में असमर्थ रहे। उनकी यह परिकल्पना कि वे मुस्लिम-मकबरे अथवा मस्जिद के अन्दर खड़े हैं, उनकी वैचारिक शक्ति को इतना कुंठित कर देती है कि वे यह अनुमान नहीं कर सके कि वे उन हिन्दू मन्दिर अथवा मस्जिद के अन्दर खड़े हैं, जिनको बाद में मुसलमानों ने उस रूप में परिवर्तित कर दिया है। मध्ययुगीन सभी भवनों के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वान् यह परिकल्पना करते हैं कि उनका निर्माण पूर्ववर्ती हिन्दू भवनों के ध्वंसावशेषों से कराया गया है। यह तो केवल अर्द्ध-सत्य है। उन्होंने यह नहीं सोचा कि प्राचीनकाल में हिन्दुओं ने अपने मन्दिरों, भवनों और दुर्गों का निर्माण ऐसे पूर्व-निर्मित स्तम्भों, चौखटों, बल्लियों तथा मेहराबों से नहीं करवाया होगा कि जिन्हें सरलता से विखण्डित कर अन्य स्थानों पर ले जाकर इच्छानुसार प्रयोग में लाया जा सके।
सबसे विचारणीय बात यह है कि किसी भी नए भवन का निर्माण किसी पुराने भवन के ध्वंसावशेषों से नहीं किया जा सकता। किसी पुराने भवन को विखण्डित कर उसके ध्वंसावशेषों को दूसरे स्थान के लिए ढोने का व्यय-भार भी अत्यधिक होगा। इस प्रक्रिया में कुछ भाग टूटकर अनुपयोगी हो जाएंगे तथा नये भवन के आकार-प्रकार से उनका कोई तालमेल नहीं बैठेगा। और फिर ऐसा दुर्बुद्धिपूर्ण कौन होगा कि किसी हिन्दू भवन को पहले ध्वस्त करे और फिर उसके ध्वंसावशेषों को दूसरे स्थान पर ले जाकर उनसे वैसा ही नया भव्य भवन बनवाने का विचार करे?
यदि कोई विशाल हिन्दू भवन तोड़कर उसके पत्थर की शिलाएँ दूसरे स्थान पर ले जाई जाएँ तो वे सब इस प्रकार घुल-मिल जायेंगी कि उनको पृथक् करना और फिर छाँटना कि कौन-सी शिला किस मंजिल की किस दीवार की है, न केवल सिर-दर्द अपितु बहुत से समय का अपव्यय भी होगा। इस समस्या का अनुमान इसी बात से लगाया जाता है कि जो लोग अपनी दुकानों को बन्द करने के लिए तख्तों का प्रयोग करते हैं उसके लिए उन तख्तों को न केवल क्रमश: अंकित करना पड़ता है अपितु बाहर-भीतर तक का भाग तथा ऊपर-नीचे के सिरों के लिए भी चिह्न लगाने पड़ते हैं। जब तक कि उन तख्तों को तदनुरूप नहीं लगाया जाएगा दुकान अच्छी प्रकार बन्द नहीं हो सकेगी। इस प्रकार साधारण-सी दुकान को बन्द करने के लिए इतने लम्बे-चौड़े हिसाब-किताब को आवश्यकता होती है तब क्या कोई विशाल भवन उसी सम्पूर्णता और कलात्मकता के साथ उन ध्वंसावशेषों एवं शिलाओं से, जो कि दूसरे स्थान से लाई गई हैं, बनाया जा सकता है ?
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