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अजनबी

राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

"अरे विकास तुम और बस में।” मुकेश का स्वर व्यंगात्मक था।

"क्यों भई क्या हम बस में नहीं चल सकते।"

"दो-दो गाड़ियों के मालिक होकर बस में चलो, कुछ समझ में नहीं आया।"

"वो...वो गाड़ी वर्कशाप में पड़ी है।” विकास ने सफाई पेश की।

“सुबह तो कालेज तुम गाड़ी से ही आये थे।"

"हाँ...घर जाते समय रास्ते में खराब हो गई थी।"

लता दोनों की बातें सुन रही थी, वह जानती थी विकास बस में किसलिये है। जब उससे नहीं रहा गया तो बोल पडी-"अरे, मुकेश कहाँ की बैठे...इने महाशय की रोज ही शाम को गाड़ी खराब हो जाती है। मैं तो रोज ही इन्हें बस में देखती हूँ।”

विकास का रंग सफेद पड़ गया। परन्तु तुरन्त ही उसने अपने आपको सामान्य कर लिया और मुस्कुराते हुए बोला-"लगता है। लता जी हपसे कुछ नाराज हैं। हमें भी आपके सहपाठी हैं, मुकेश की तरह।”

"ये बात तुम समझते हो न...लेकिन मेरी नजरों में तुममें, और मुकेश में जमीन-आसमान का अन्तर है...सबसे बड़ा अन्तर तो यही है कि तुम दो-दो गाड़ी के मालिक हो...अमीरी और गरीबी जमीन-आसमान की तरह है...जो कभी भी आपस में नहीं मिल सकते।” लता के चेहरे पर क्रोध छलक रहीं था।

“अरे बाप रे! लता जी आपने तो अच्छा खासा लैक्चर दे डाला।” विकास के चेहरे पर बेशर्मी भरी मुस्कुराहट थी।

लता कुछ कहने ही जा रही थी कि उसका बस स्टाप आ गया और वह तेजी से उतर गई।

विकास एक रईस बाप का इकलौता बेटा...जिसकी हर शाम ,किसी क्लत्रं या होटल में गुजरती थी...रोज ही उसकी बांहों में एक, नई तितली नजर आती थी। पढ़ाई तो नाम मात्र के लिए थी। विकास तीन साल से लगातार बी.ए. में फेल होने के बाद भी अपनी पढ़ाई के प्रति वफादार नहीं हो पाया था।

रात के बारह बजे का टाईम था, विकास नशे में धुत लड़खड़ाते कदमों से कार से उतरा और धीरे-धीरे दरवाजे की ओर बढ़ा।

कमरे में घुसते ही उसने अपने सामने अपने पिता सेठ दयानाथ को खड़े पाया। उनकी आंखें अंगारे की तरह जल रही थीं। विकास पिता को सामने देख घबरा गया. उसको नशा उड़ गया। वह रास्ता काटकर अपर चढ़ने लगी लेकिन तभी।

"ठहरो विकास।" दयानाथ की रोविली आवाज गूंज उठी।

“कहिये डैडी।” विकास के कदम जहाँ थे वहीं थम गये।

"क्या समय हुआ है?" दयानाथ के स्वर में क्रोध के साथ व्यंग भी था।

"जी...जी बारह बजे हैं।” विकास का स्वर लड़खड़ा गया।

"ये समय शरीफों के घर आने का है।”

"जी-जी-डै-डी-वो-वो-।"

"ये जी-जी क्या लगा रखी है-ठीक से बोलो-और तुम्हारे कदम क्यों लड़खड़ा रहे हैं-तुमने शराब पी है-बोलो बोलो-तुम शराब पीकर लड़कियों के साथ मौज मस्ती मार कर आ रहे। हो-नालायक मैं जो मेहनत से धन कमा रहा हूं। वह क्या इसीलिये कि तुम मेरी मेहनत की कमाई को शराब पी-पीकर बहा दो।"

"सॉरी...डैडी...अब ऐसा नहीं होगा।" विकास का चेहरा झुका हुआ था। आज उसके डैडी ने उसकी चोरी पकड़ ली थी।

"अब कैसा होगा मैं सब जानता हूं। कान खोलकर सुन लो. अगर आज के बाद तुम नौ बजे से पहले घर नहीं आये तो इस घर से तुम्हारा कोई मतलब नहीं होगा।” दयानाथ पैर पटकते हुए अपने कमरे की ओर बढ़ गये।

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