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अजनबी

राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

"मेरा कमरा...।"

"जी हाँ...आपका कमरा...आप यहीं हमारे साथ ही रहेंगे।"

"पर क्यों?"

“इस क्यों का जवाब तो मेरे पास नहीं है...इसका जवाब डैडी ही देंगे...मुझसे डैडी ने इस कमरे को आपके लिये साफ करवाने के लिये कहा है। अब तक सुनीता उस कमरे के दरवाजे पर पहुंच चुकी थी जो मुकेश के लिये था।'

"सेठ जी कहाँ है।” मुकेश की समझ में नहीं आ रहा था। कि सेठ जी ने उसे अपनी कोठी में ही क्यों रखा है।

"डैडी तो चले गये हैं...यहाँ मैंने अपनी समझ से आपकी जरूरत का सब सामान रखवा दिया...अगर आपको किसी चीज की जरूरत हो तो दीनू काका को आवाज लगा लीजियेगा।"

"बिटिया तुम्हारा फोन आया है।" पीछे से दीनू की आवाज सुनाई दी।

"अच्छा मैं जरा फोन अटैन्ड कर लूँ" सुनीता ने मुकेश से कहा और वापस चली गई।

मुकेश कपरे का निरीक्षण करने लगा कमरे में वास्तव में । उसकी जरूरत की हर चीज थी। मुकेश को काफी थकान महसूस हो रही थी। वह पलंग पर लेट गया।

सुनीता तेज कदमों से चलती हुई अपने कमरे में पहुंची। उसने फोन उठाया-"हैल्लो।”

"हैल्लो...अरी सुनीता तू बोल रही है। उधर से आवाज आई ये सुनीता की सहेली मीना का फोन था।

"हाँ भई...मैं, सुनीता बोल रही हूं।" सुनीता ने कहा।

“यार तू कालेज कैसे नहीं पहुंची...सुबह मैंने फोन किया तो अंकल ने कहा...तुम कालेज गई हो...पर कालेज में तुम नदारद थीं...और अब घर से बोल रही हो...ये सब क्या है।" मीना ने. एकदम ही अपने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। मीना सुनीता की बचपन की सहेली थी। आज सुनीता बी० ए० के सैकेण्डियर की छात्रा थी। दोनों का आज भी उतना ही मेल था जितना बचपन में था। 

मीना व सुनीता की जोड़ी पूरे कालेज में मशहूर थी। कालेज के शिक्षक अक्सर इन दोनों का उदाहरण देते रहते थे। कालेज में एक घड़ी भी दोनों अलग नहीं रहती थीं कालेज भी दोनों अक्सर।। साथ ही जाती थीं। यही कारण था कि आज सुनीता के न पहुंचने पर मीना ने घर फोन किया था पर इस समय सुनीता घर से जा चुकी थी।

"अरे बाबा तुमने तो एक साथ ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी। स्वका जवाब एक साथ देना अपने बस की बात नहीं है।” सुनीता ने हंसते हुये कहा।

"चल माफ किया...अब तू एक-एक प्रश्न का जवाब दे।" मीना ने बूढ़ी दादी की आवाज में कहीं और खिलखिला कर हंस पड़ी।

“मीना सब कुछ फोन पर बताना सम्भव नहीं...तू जल्दी से। यहाँ आजा...फिर आराम से बैठकर बात करेंगे।"

"क्या आज कुछ विशेष घट गया।” मीना की आवाज शरारत-पूर्ण थी।

"सिर्फ कुछ नहीं...बहुत विशेष।”

“ओ० के०..मैं दस मिनट में पहुंच रही हूं...पर शर्त है।”

"क्या...?"

"दीनू काका से गरम-गरम कुछ बढ़िया बनवाकर रखना।"

"मंजूर।" इतना कहकर सुनीता ने फोन काट दिया।

सुनीता जानती थी कि अगर वह फोन नहीं रखेगी तो दस मिनट तो मीना के फोन पर ही हो जायेंगे और उसकी बातें खत्म नहीं होंगी।

मीना सुनीता की बचपन की सहेली होने के साथ-साथ सेठ शान्ति प्रसाद के जिगरी दोस्त की लड़की भी थी। जिस प्रकार उन दोनों की दोस्ती पक्की थी वैसे ही आगे उनकी सन्तान भी उनकी दोस्ती को कायम रखे थी।

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