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राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

सुनीता ने जब देखा मुकेश अभी तक नहीं आया तो उसने गाड़ी निकाली और आफिस की ओर दौड़ा दी। इस समय सड़कों पर काफी भीड़ थी। आफिस की छुट्टी का समय था। सुनीता को इसी वजह से गाड़ी धीरे चलानी पड़ रही थी। गाड़ी चलाते-चलाते ही सुनीता ने अपने दिमाग में एक प्लान बना लिया था मुकेश को परेशान करने का।

सुनीता की समझ में नहीं आ रहा था कि मुकेश के आने के बाद वह एकदम कैसे बदल गई है। वह चाहती थी मुकेश सदा उसकी आंखों के सामने रहे, वह सदा मुकेश से ही बात करती रहे। पहले सुनीता कालेज से सहेलियों के साथ ही पिक्चर आदि चली जाती थी परन्तु आजकल सुनीता को घर आने की जल्द रहती थी।

सुनीता की सहेलियां भी सुनीता की इस बदलाव से परेशान थीं। परन्तु किसी को कुछ पता नहीं था हाँ एक मीना थी जो जानती थी कि सुनीता इतना क्यों बदल गई है परन्तु उसने राज को राज ही रखा था। अकेले में अक्सर पीना सुनीता को छेड़ देती थी।

सुनीता इन्हीं ख्यालों में गाड़ी चलाती आफिस पहुंच गई थी।

उसने गाड़ी को हार्न जानबूझकर नही बनाया था। गाड़ी से उतरकर वह मैनेजर के कमरे की तरफ बढ़ गई। सारा आफिस खाली पड़ा था।

सुनीता ने चपरासी से पूछा-“मैनेजर साहब हैं।"

"जी मेमसाहब।” चपरासी ने अदब के साथ कहा। वह सुनीता को भली प्रकार पहचानता था।

सुनीता आगे बढ़ गई। अब वह मुकेश के कमरे के दरवाजे पर खड़ी थी। सुनीता ने धीरे से दरवाजा और दबे पांव मुकेश की कुर्सी के पीछे जाकर खड़ी हो गई।

मुकेश एक फाईल में मगन था उसे इतना भी पता नहीं चल सका कि उसके कमरे में कोई आया है।

सुनीता बड़े प्यार से मुकेश को निहारती रही। मुकेश जैसे ही फाइल का पन्ना पलटने लगा। उसकी आंखों पर किसी के दो हाथ चिपक गये। मुकेश हड़बड़ा गया। उसके दोनों हाथ अपनी आंखों पर पहुंच गये। हाथों को छूने से उसे लगा ये किसी लड़की के हाथ हैं। फौरन ही उसके दिमाग में सुनीता का चेहरा धूम गया।

"सुनीता...” मुकेश के मुंह से निकला।

अपना नाम सुनते ही सुनीता को हंसी आ गई। सुनीता के हाथों पर जब मुकेश के हाथों को स्पर्श हुआ तो सुनीता के सारे शरीर में सिहरन दौड़ गई। उसका मन हुआ इसी प्रकार सदा मुकेश के हाथों में उसके हाथ रहें पर तुरन्त ही उसने सुना।

“सुनीता छोड़ो न मेरी आंखें।” मुकेश उसका हाथ अपनी आंखों से हटाते हुये कह रहा था।

सुनीता ने अपने हाथ हटा लिये और मुकेश की कुर्सी के, डण्डे पर ही बैठ गई।

“मुकेश अभी कब तक काम करना है।" सुनीता ने मुकेश से पूछा।

“एक घण्टा तो लग ही जायेगा।” मुकेश ने फाइल पर नजर। गड़ाये हुये कहा।

“क्या...एक घण्टा।" सुनीता की आवाज लगभग चीख के समान थी।

"हाँ...क्यों?" मुकेश ने पूछा।

"ऐ...तुम अब एक मिनट भी काम नहीं करोगे...समझे।" सुनीता ने मुकेश के हाथ से फाइल छीन ली।

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