लोगों की राय

सामाजिक >> अजनबी

अजनबी

राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

राजहंस का नवीन उपन्यास

"लेकिन...लेकिन ये बहुत जरूरी काम है।" मुकेश ने परेशानी भरे स्वर में कहा।

"मैं डैडी से बात कर लूंगी...इस समय तुम फौरन मेरे साथ चलोगे।” सुनीता का स्वर आदेशात्मक था।

“पर कहाँ?" कुछ न समझते हुये मुकेश बोला।

"जहन्नुम में।” सुनीता के चेहरे पर क्रोध था।

सुनीता का क्रोध भरा चेहरा देखकर मुकेश को हंसी आ गई-“देवी जी...फिलहाल बन्दे को जहन्नुम या जन्नत कहीं भी जाने का इरादा नहीं है।"

"मुकेश देखो...मुझे गुस्सा मत दिलाओ...पहले ही देर हो गई है...और देर करोगे तो सब गुड़ गोबर हो जायेगा।" फिर मुकेश को कुर्सी से घसीटते हुये बोली-“तुम अपनी फाईल साथ ले लो...घर पर काम कर लेना।"

"ऐसे बोलो ना...।" मुकेश ने कुर्सी से उठते हुये कहा फिरे। चपरासी को बुलाने के लिये घण्टी पर हाथ मारा।

चपरासी फौरन हाजिर हो गया।

"आफिस बन्द कर दो।” कुछ जरूरी कागज समेटते हुये मुकेश ने चपरासी से कहा फिर सुनीता से बोली-“चलो।"

सुनीता ने अपनी जरूरत का सामान खरीदी फिर वह एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान में घुस गई, उसके पीछे-पीछे मुकेश भी चला गया। सुनीता ने मर्दानी कमीज पैन्ट दिखाने के लिये कहा।

“आप साईज बताइये।” दुकानदार ने सुनीता से कहा।

"इनके ही नाप के चाहिये।” सुनीता ने मुकेश की तरफ देखकर दुकानदार से कहा। "ए...क्या कह रही हो...मेरे पास तो कपड़े हैं। फिर दुकानदार से बोला-“मिस्टर मेरे लिये मत निकालिये।"

"आप दिखाइये, इन्हें बोलने दीजिये।” सुनीता ने दुकानदार से कहा।

दुकानदार ने कई कपड़े दिखाये। मुकेश ने देखा सुनीता नहीं मानेगी तो दुकान से बाहर आकर खड़ा हो गया।

सुनीता ने अपनी पसन्द के ही कपड़े खरीदे और पेमेंट करके बाहर आई। मुकेश उसे बाहर ही खड़ा मिल गया। उसका मुंह फूला हुआ था। सुनीता गाड़ी की तरफ बढ़ गई। वह चुपके-चुपके मुकेश को देखती जा रही थी जो सुनीता के पीछे आ रहा था। दोनों चुपचाप गाड़ी में बैठ गये और सुनीता ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। मुकेश का मुंह अभी भी फूला हुआ था।

"नाराज हो।” सुनीता ने मुकेश से कहा।

"तुम्हें मेरे कपड़ों की क्या जरूरत थी...मेरे लिये मेरे पास कपड़े हैं।” मुकेश ने गुस्से से कहा।

"हैं..मैं भी जानती हूं परन्तु सब पुराने हैं।"

"नये का क्या करना है।"

"तुम एकदम बुद्ध हो।” सुनीता ने गुस्से से कहा।

"ये नई बात नहीं है...मेरे पापा भी ऐसा ही कहते थे।" मुकेश के स्वर में शरारत थी। सुनीता को क्रोध में देख मुकेश का गुस्सा रफूचक्कर हो गया था।

"जानते हो कल पिकनिक जाना है।"

"एक बात अपनी समझ में नहीं आई...पिकनिक तुम्हें जाना है...कपड़े मेरे खरीद लिये।" वास्तव में पिकनिक के नाम से मुकेश को आश्चर्य हुआ था।

"पिकनिक तुम भी चल रहे हो।"

"क्या मैं...तुम लड़कियों में मेरा क्या काम?” मुकेश का दिमाग चकरा गया।

“मुकेश पिकनिक में दस-बीस लड़कियां नहीं जा रही हैं...मैं तुम और मीना बस हम तीनों को ही जाना है...और मीना ने विशेष अनुरोध से कहा है...कि मुकेश भी चलेगा।” अब सुनीता ने बात साफ की।

सुनीता व मुकेश जब घर पहुंचे तो सेठ जी घर आ चुके थे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book