सामाजिक >> अजनबी अजनबीराजहंस
|
|
राजहंस का नवीन उपन्यास
"तुम्हारे साथ जीवन मैंने बिताना है. ईडी ने नहीं समझीं।"
लता की कुछ समझ में नहीं आया और वह कठपुतली की भांति विकास के पीछे-पीछे चल दी। मन्दिर में विकास नै पुजारी के हाथ में कुछ नोट रखे और दो मालायें ले ली। पण्डित ने कुछ मंत्रों का उच्चारण किया फिर दोनों ने एक दूसरे के गले में माला डाल दी।
विकास ने लता की कमर में हाथ डाल दिया और धीरे-धीरे उसे लेकर गाड़ी के पास आ गया और गाड़ी दौड़ पड़ी। लता को सिर विकास के कंधे से टिका था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ये कैसी शादी है, न बारात निकली ने बाजे बजे, न फेरे
हुये। बस जयमाला डालने से शादी हो गई। एक पण्डित के अलावा। न कोई बाराती न घराती परन्तु अब किया भी क्या जा सकता है। गया समय लौटकर नहीं आ सकता था।
विकास ने लता के फ्लैट पर जाकर गाड़ी रोक दी। लता ने अपना फ्लैट खोला फिर लुटी सी सोफे पर बैठ गई। विकास लता के करीब ही आकर बैठ गया। .विकास ने लता को गुमसुम देखी तो बोल उठा-“लता, तुम खुश नहीं हो।”
"विकास, मेरा दिल घबरा रहा है...मैं समझ नहीं पा रही हूं। ये ठीक हुआ या गलत...फिर ये कैसी शादी है, जिसके बाद मैं तुम्हारे घर भी नहीं जा सकती...दुनिया की नजरों में तुम्हें अपना पति नहीं कह सकती...कहीं तुम मुझे मझधार में तो नहीं छोड़ दोगे।" लता की आंखों से आंसू टपक कर गालों पर आ गये।
"लता, तुम समझती नहीं, मैं यह बात डैडी से नहीं कह सकता-उन्होंने पता नहीं कितनी करोड़पतियों की लड़कियों को, देख रखा है...अगर मैं अचानक तुमसे शादी करने को कह दूंगा तो डैड़ी भार हो जायेंगे...हो सकता है...गुस्से में वह मुझे अपनी जायदाद में भी अलग कर दें...तुम्हीं बताओ फिर हम क्या करेंगे इसलिये अभी तुम अपने काम से डैडी को खुश करो। मैं भी किसी दिन ईडी का मूड देखकर उनसे सब बता दूंगी।"
"ठीक है विकास...अब तो वही करना होगा जैसा तुम चाहते हो।” लता ने एक आह भरते हुये कहा।
"गुड डार्लिंग, तुम बहुत अच्छी हो...अच्छा मैं चलता हूं...तुम आराम करो, मैं शाम को आऊंगा।" इतना कहते हुये विकास ने लता को बांहों में भरकर उसके होठों पर अपने होंठ रख दिये फिर वह वहाँ से बाहर निकल गया।
लता खिड़की में जाकर खड़ी हो गई और जाते हुये विकास को देखती रह गई।
रात के दस बजने वाले थे। मुकेश अभी भी फाइलों में खोया हुआ था। उसे काम करते काफी थकान हो रही थी। वह जानता था इस समय अगर एक कप चाय मिल जाये तो अच्छा हो, पर कहे किससे। दीनू तो अपना काम निपटाकर जा चुका था। सुनीता से कहने में उसे हिचकिचाहट लग रही थी।
मुकेश ने सिर मेज़ पर टिका लिया। उसके सिर में दर्द था। बीच-बीच में वह अपने हाथ से सिर दाये भी जा रहा था। तभी उसे लगा कि कोई इस तरफ आ रहा है। उसकी नजरें दरवाजे की तरफ उठ गई। आहट करीब होती गई मुकेश ने देखा सुनीता हाथ में चाय का कप लिये खड़ी थी।
"अरे सुनीता इस समय तुम।" मुकेश बोला।
“चाय लो।" उसके चेहरे पर सदाबहार हंसी थी।
“तुम्हें कैसे पता चला...इस समय मुझे चाय की जरूरत है।" आश्चर्य से मुकेश ने कहा।
|