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रथ इधर मोड़िये

बृजनाथ श्रीवास्तव

प्रकाशक : मानसरोवर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15519
आईएसबीएन :978-1-61301-751-7

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हृदयस्पर्शी कवितायें

रथ इधर मोड़िये ....

 

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि छायावादोत्तर गीत के विकास-क्रम में नवगीत ने अपनी एक अलग और सर्व स्वीकृत पहचान तथा आख्या बनायी है। वे लोग, जो कि जिस-तिस कारण से नवगीत की परिधि में शामिल नहीं हुए अथवा किये नहीं जा सके, आज भी नवगीत को नकारते हैं, महज विरोध के नाम पर विरोध करने के लिए जब-तब खंभा नोचने का असफल प्रयास करते दिखायी पड़े, किन्तु नवगीत की धारा आज भी अप्रतिहत और अनाविल रूप से प्रवाहित हो रही है। नवगीत दशक के तीनों खण्डों की यात्रा में साथ-साथ, नवगीत अर्धशती और नवगीत एकादश जैसे समवेत संकलनों के प्रकाशन के बाद जितने गीतकार अस्तित्व में आये उनके गीत अपनी अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति के आधार पर नवगीत की परम्परा के संवाहक ही अधिक हैं न कि कवि सम्मेलनी-मंच पर परोसे जा रहे आज भी गलदश्रु भावुकता-प्रधान लिजलिजे गीतों के समकक्ष और समान धर्मी नवगीतकार श्री यतीन्द्र नाथ राही, जगत्प्रकाश चतुर्वेदी, श्री कृष्ण शर्मा, जगदीश श्रीवास्तव, अवध बिहारी श्रीवास्तव, सत्यनारायण, जंगबहादुर श्रीवास्तव बन्धु, राधेश्याम बन्धु, राधे श्याम शुक्ल, नचिकेता, मधुकर अस्थाना, मयंक श्रीवास्तव, शैलेन्द्र शर्मा, अनिरुद्ध नीरव, महेश अनघ, शंकर सक्सेना, ओम प्रकाश सिंह, निर्मल शुक्ल, विनोद श्रीवास्तव, दिनेश प्रभात, मुकुट सक्सेना, भारतेन्दु मिश्र और यश मालवीय जैसे कम से कम तीन-चार दर्जन गीतकार ऐसे हैं जिन्हें बिना किसी संकोच और विवाद के नवगीत के महत्वपूर्ण रचनाकारों में गिना जाता है। ये सभी नये गीतकार देश के सम्मानित नागरिक हैं और इनके गीत-प्रदेय का समुचित नोटिस भी लिया जा रहा है। बृजनाथ श्रीवास्तव का नाम भी नवगीत दशकेतर रचनाकारों में बड़ी आशा और सम्भावना के साथ लिया जाता है।

एक युवा नवगीतकार की हैसियत से बृजनाथ जी के साथ मेरी पहचान एक डेढ़ दशक पुरानी तो हो ही चुकी हैं, ऐसी कोई स्तरीय साहित्यिक-पत्रिका शायद ही होगी जिसमें बृजनाथ जी के गीत देर-सबेर प्रकाशित न होते हों, अभी कुछ वर्ष पहले 'दस्तखत पलाश के' नामक पहले-पहले नवगीत-संग्रह के माध्यम से ही तो उन्होंने अपने हस्ताक्षरों से गीत के द्वार पर दस्तक दी थी। अब मुझे उनके दूसरे संग्रह रथ इधर मोड़िये के गीतों पर कुछ कहने का अवसर मिला है तो मैं कुछ-न-कुछ अवश्य कहना चाहूँगा।

मैंने इस पाण्डुलिपि को दो बार प्रारम्भ से अन्त तक पढ़ा है, जिसके आधार पर इसमें अन्तर्युक्त गीतों के संकलन का नाम “संवाद जारी है" "गीत उजली भोर के', 'जंगल में मंगल है', 'यक्ष कथा सूरज की', 'सरजू जल काँप रहा', 'महुआ टपके गेहूँ फूले', में से भी कोई दिया जा सकता था किन्तु इन सबसे अधिक अर्थवान नाम रथ इधर मोड़िये ही रहेगा, क्योंकि यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते बृजनाथ अपने पथ का संधान कर चुके हैं जिस पर मुड़ने वाला उनके नवगीतों का रथ दिग्भ्रमित होने की आशंका से बचा रहेगा।

कविता की भाँति गीत भी संवेदना के स्तर पर सार्वभौम और त्रिकालाबाधित होता है तथापि उसे दिक्काल-निरपेक्ष भी नहीं कहा जा सकता है। गीतकार जिस जनपद में जन्म लेता और जिस परिवेश में उसके सर्जकोचित व्यक्तित्व का विकास और विन्यास होता है वहाँ के आकाश, जल, मिट्टी और हवा की ठण्डक और ऊष्मा का असर उसकी संवेदना और रागानुभूति के माध्यम से उसकी रचना पर पड़ता ही है। माँ की कोख से जन्म लेने के बाद शिशु अपने प्रसूतिग्रह और अँगनाई में ही आँखें खोल कर घर-परिवार, समाज-संसार के बीच न सिर्फ सुख-दुखात्मक संवेगों से परिचित होता अपितु निजत्व और परत्व के अन्तर को समझते हुए मानवीय सम्बन्धों का पाठ भी पढ़ता है। 'घर' इन इन्सानी रिश्तों को सीखने-समझने की प्राथमिक पाठशाला है। अपने स्वकीय तथा परकीय आह्लाद और अवसाद का विनिमय और सहयोग व्यक्ति घर में ही रहकर सीखता है। 'घर' ही उसकी रक्षा की विश्वस्त विश्राम- भूमि है। बृजनाथ ने संग्रह के पहले ही गीत में घर को एक मन्दिर की संज्ञा देते हुए लिखा है -

सच कहें / घर हमेशा मुझे एक मन्दिर लगा / भोर से शाम तक / आरती के यहाँ गान हैं / त्याग के प्यार के / मूर्तिवत बन्धु प्रतिमान हैं / सच कहें / शीश पर हाथ माँ का शुभंकर लगा / आँगने द्वार तक / खुशबुओं के यहाँ सिलसिले / लोग घर के / जहाँ भी मिले हँस गले से मिले / सच कहें/ प्रेम में मार्च जैसा दिसम्बर लगा / नींव विश्वास की / यह भवन है उसी पर खड़ा / सब बड़े हैं बड़े / किन्तु घर से न कोई बड़ा / सच कहें / आज रिश्ता यहाँ हर दिगम्बर लगा।

इसे महज गृह रति पर केन्द्रित गीत कहकर नजरन्दाज नहीं किया जा सकता। कवि संकेततः यह भी कहना चाहता है कि मानव-मानव के मध्य आत्मीयता, प्रेम और विश्वास की भावना जब तक बनी रहेगी तभी तक व्यक्ति के रिश्तों में सार्थकता है। जिस तरह दिसम्बर की असहनीय कड़ाके की ठण्ड में जैसे मार्च की गुनगुनी धूप का आना सुखद प्रतीत होता है वैसे ही इन इन्सानी रिश्तों को हर किस्म की कुर्बानी देकर बनाये रखना चाहिए।

किसी सन्दर्भ में कभी महात्मा गाँधी ने कहा था कि भारत की आत्मा ग्रामांचल में निवास करती है। ऐसा इसलिए कि यह एक कृषि प्रधान देश है जिसकी दो-तिहाई आबादी आज भी खेती-बाड़ी पर आश्रित है। यह आबादी मेहनतकश खेतिहरों, मजदूरों, बुनकरों, बढ़इयों, लोहारों और मुट्ठी भर के दानों के लिए हाड़-तोड़ मजदूरी करने वाले केवटों, धानुकों, पासियों, कुर्मियों, जाटवों, काछियों आदि में बिखरी हुई है। यहाँ बड़े-बड़े भूमिधरों का डंका आज भी बजता है। मुट्ठी भर कर्जा लेकर और पहाड़ सा ब्याज भरकर यह आबादी जिन्दा रहने के नाम पर आखिरी साँस तक मौत से जूझती रहती है। पहनने को सलीके का पैरहन नहीं, रहने के लिए सिर छिपाने लायक छत, पेट भरने के लिए दो वक्त के लिए अन्न का जुगाड़ नहीं। यह आबादी अशिक्षा, छुआछूत, जातिगत ऊँच-नीच, परम्परागत कुरीतियों, कोर्ट-कचहरी और बेगार से दो-चार होते हुए समय से पहले ही बुढ़ा जाती है। पीने के लिए आज भी इसको एक घड़ा स्वच्छ जल की सुविधा नहीं है। पूस-माघ की सर्द रातों में खाँसते-जागते यह कैसे सुबह के सूरज की प्रतीक्षा में छटपटाती रहती है, इस बेबसी का एक चित्र देखिए-

कुहरे से डर कर / सूरज लगता / सात समुन्दर पार गया / चिड़ियाँ दुबक गयी नीड़ों में / पारा गिरा शून्य से नीचे / ठण्ड दिगम्बर होकर नाचे/ राजा जी हैं आँखें मींचे / लोकतंत्र के / जलते अलाव में / हाथ सेंकते बडे-बड़े / नंगे बदन व्यवस्था काँपे / हो रहा तमाशा खड़े-खड़े / रात पूस की / लगा बुधइया / अबकी भी बाजी हार गया।

बृजनाथ श्रीवास्तव के अधिकतर गीत इसी मानवीय विडम्बना का गोदान लिखते प्रतीत होते हैं। अभाव, गरीबी, पिछड़ेपन, शोषण, अत्याचार, उत्पीड़न और विसंगतियों की यह व्यथा-कथा इन गीतों में द्रौपदी के चीर की भाँति आदि से अन्त तक फैली हुई है। बार-बार इन गीतों में यही मौन- मुखर रूप में दोहराया-तिहराया गया है कि देश को स्वाधीन हुए भले ही आधी सदी बीत गयी किन्तु यहाँ के गाँव-जनपदों की आबादी की औसत जीवन-शैली में कोई परिवर्तन या बदलाव नहीं आया है। आर्थिक चिन्ताओं की मुक्ति के अभाव में राजनैतिक मुक्ति अथवा मताधिकार की स्वतंत्रता कोई अर्थ नहीं रखती। फिर भी जिन्दगी की गाड़ी हमेशा एक ही ढर्रे पर तो नहीं चलती। मनुष्य, मनुष्य के साथ छल-कपट-दुराचार, हिंसा और शोषण का व्यवहार करता रहे तथापि व्यक्ति के भीतर की जिजीविषा एक बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए प्रेरित भी करती रहती है। प्रकृति मानवीय जिजीविषा को अक्षुण्ण बनाये रखने में अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। कवि ने इस संग्रह के कतिपय गीतों में प्रकृति की उस नैसर्गिक सुषमा को उसकी चिरन्तन आह्लाद दायिनी शक्ति को भी मूर्तिमान किया है जैसे-

ये महकते
पारदर्शी हैं यहाँ के जल
चीड़ वन सुरभित हवाएँ पत्थरों के घर
देख छवियाँ ये विदेशी
खुश हुए जी भर
घाट पर हम तुम,
बहे गंगोत्री निर्मल
तथा इसी क्रम में आगे देखें -
हाँ, चलो ऊपर
चलें हम
स्वर्ग में उत्सव मनायें
वहाँ पर ब्रह्म कमलों के
बगीचे हैं, गुफाएँ हैं
तपोवन सप्त ऋषियों के
अमर होती ऋचाएँ हैं
...............
मंत्र मुखरित
आश्रमों को
कौन कहता है, शिलाएँ
अथवा-
याद लिए कमसिन
चटुल तितलियों के पंखों से उड़े जा रहे दिन
उन पर ही तो
छपे हुए हैं
खेत, पोखरे, फूल
लहरें, नदी, मछलियाँ, वंशी,
जुगनू और बबूल
और छपे माँ के आँचल के इन पर हैं पल-छिन
अल्हड़ हँसी
हँस रही इन पर
विद्यालय की राह
तीरथ, मन्दिर,
दहू, भौजी
और पिता की बाँह
कितनी बार हुए ये ओझल, उभरे फिर वे दिन।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के भारत ने अब तक जो एक के बाद-एक पंचवर्षीय विकास योजनाओं के माध्यम से विकास किया उसमें एक ओर जहाँ हमने भौतिक-औद्योगिक और यांत्रिक उत्कर्ष की अनेक सीढ़ियों का आरोहण किया हम वहाँ नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण के मूक साक्षी भी रहे हैं। आधुनिकता की होड़ में एक तरफ जहाँ नगर सभ्यता महानगरीय और मेट्रोपोलिटन मुखौटों को ओढ़ती रही वहाँ दूसरी तरफ गाँवों और कस्बों के नगरीकरण की प्रक्रिया भी तेजी से विकसित हुई। सड़क, स्कूल, डिस्पेन्सरी, पंचायत घरों, डाकखानों के साथ-साथ रेडियो, टेलिविजन, ट्रैक्टर, थ्रैशर और ट्रालियाँ भी अब गाँवों में नजर आने लगीं। ऊपर-ऊपर से देहाती वर्ग कुछ-कुछ भरा-पूरा लेकिन अन्दर-ही-अन्दर खोखला भी नजर आने लगा। नये-पुराने की इस कशमकश को इन पंक्तियों में भली-भाँति देखा जा सकता है-

कुछ कुबेर अब / शहरों वाले / अपने गाँव घुसे / नये दिनों के / फन्दों में सब / सीधे लोग फँसे / नयी भोर में / सूरज के संग / होंगे गाँव यतीम / फूट-फूट कर / रोता है यह मीठा नीर कुआँ / सुखी गाँव था / साक्षी हैं ये / बुलबुल और सुआ / प्रगति परखने / आयेगी फिर / दिल्ली से कल टीम।

और

यदि न चेते तो / हरे दिन बीत जायेंगे / नहीं घन मीत आयेंगे/ हो रहे हैं छेद / नभ ओजोन पर्तों में / छिप रहे नाराज बादल / श्याम गर्तों में / ये पपीहे / फिर कहाँ जल गीत गायेंगे

बृजनाथ की गीत-संवेदना और उसके सामाजिक सरोकारों में उत्तरोत्तर विकास की प्रवृत्ति लक्षित की जा सकती है। पहले जहाँ वह गाँव और जनपदों के दुःख-दर्द की कहानी को अपने छन्दों में बाँधता था और यथार्थोन्मुख होकर भी सपनों आदर्शों की सर्वजन कल्याण की कल्पना ही अधिक करता था। जैसे-जैसे उसके गीतों पर शहराती दन्द-फन्द की दुविधा के दाँव-पेंच हावी होते जाते हैं, उसके स्वर में व्यंग्य का पैनापन और धारदार भाषा की चोट करने वाली क्षमता और अधिक तीव्र हो उठती है, मुँह पर रखते बूट, अपने-अपने इंद्रप्रस्थ, जूता पहने पाँव में, राजमहल, परधानी में, और भूखे दिवस मजूरों के, हमारे इस कथन के साक्षी हैं। हम पुनः एक गीतांश को कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे-

“इस तरह कुछ / आदमी की आँख का है / मर गया पानी / हो रहा दिन-दिन / नदी का पेट रेतीला / बँट गयी है धार / टुकड़ों में बँटा टीला/ और प्यासे तट कहें, / नदिया हुई है आज बेगानी / हो रही / नभ और जल-थल में / प्रकृति के संग मनमानी / ये परिन्दे / डाल पर लटके कहाँ जायें / गीत उजली भोर के ये / किस तरह गायें / तीर ताने दे रहे हैं/ लुब्धकों के वंश वीरानी"

बृजनाथ के गीतों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे सहज और सरल होने के बावजूद सपाटबयानी के दोष से पूर्णतः मुक्त हैं। उन्होंने अपने कथ्य को प्रस्तुत करने के लिए सर्वत्र ही प्रतीकों और सहज - टटके बिम्बों का सहारा लिया है। प्रथम दृष्ट्या वे अभिधा शैली के गीतकार नजर आते हैं किन्तु अगले ही क्षण उनकी अभिधा पर लाक्षणिक वचन-वक्रता आ विराजती है। संग्रह के अन्त में एक गीत है जिसमें सर्वहारा और मेहनतकश वर्ग के व्यक्ति के लिए बृजनाथ ने गन्ने का रूपक दिया है जिसे कभी काटा और छाँटा जाता है फिर कोल्हू में पेरने के बाद खौलते हुए कड़ाह की यातना भी सहनी पड़ती है- इस पर गन्ने के भीतर की जिजीविषा युयुत्सा में बदलने लगती है और वह कह उठता है कि एक दिन प्रहार करने वाली लाठी हमीं बनेंगे। यहाँ यह कहना आवश्यक नहीं होगा कि बृजनाथ भले ही रमेश रंजक, नचिकेता, शान्ति सुमन या देवेन्द्र आर्य की तरह अपने गीतों को जनवादी नहीं कहते हों किन्तु एक ईमानदार और जागरूक गीतकार जब खुली आँखों से अपने आस-पास के यथार्थ पर दृष्टि-केन्द्रित होकर रचना करता है तब वह अनायास ही जनवादी गीत लिख बैठता है और उसके वे गीत नवगीत भी हो सकते हैं।

बृजनाथ ने अपने गीतों की भाषा को एक शिल्पी की भाँति तराशा भी नहीं है, उनकी गीत गत अन्तर्वस्तु स्वयं अपने लिए एक संवेगमयी भाषा गढ़ लेती है, जिसमें होती है एक जीवन्त गति और उद्दाम प्रवाह, लय और राग के पंख लगाकर उनके भाव शक्ल गीत तत्काल प्रभाव उत्पन्न करने वाली अभिव्यंजकता में तब्दील होने लगते हैं, एक उदाहरण देखें-

सुबह कंचनी, दुपहर गोरी
और साँवली शाम
अरी निदाघे! लगे तुम्हारे
बड़े सलोने नाम
प्रात चहक कर सभी दिशाएँ
गायें तुम्हारे गीत
धूप नहाकर करने लगती
छाया के संग प्रीत
संध्या होते मदिर पवन भी
घूमे बन खय्याम
कीर, कोकिला वन अमराई
उत्सव मंगल गान
महुआ टपके, गेहूँ उछले भरे हुए खलिहान
धूप तपिश की ओढ़ चूनरी
ताक रही घनश्याम
गोधूली में गाय रँभाती
आतीं अपने गाँव
लौट रहे हैं अस्ताचल से
पाँखी अपने ठाँव
कौन-कौन पल बीत चुके हैं
जान न पाया नाम।

भाषा की इस प्रसन्न प्रवाहशीलता के विनियोग ने बृजनाथ के गीतों में जिस लयवन्ती गति के साथ भाव चित्रांकन किया है वह उसके अन्य समसामयिक गीतकारों में ढूढ़े नहीं मिल पाता। वे सिर्फ सिर्फ चुहल और चुभन के लिए व्यंग्य करके रुक नहीं जाते बल्कि दिशा-निर्देश करने वाले मान्यवरों को भी सही दिशा पर चलने की सलाह देते हैं, यथा-

छोड़िये, मान्यवर!
बात अपनी वहीं छोड़िये
रथ इधर मोड़िये
रहनुमा देश के
झुग्गियाँ क्यों जलीं
सोचिये तो जरा / पंचतारे में तुम
बैठ करते रहे
रात-दिन मशविरा
जातियाँ धर्म तोड़ा किये देश को
मत अधिक तोड़िये
साँस भर एक झोंका पवन का मिले
जल मिले प्यास भर/ काम हाथों में हो
प्यार से साथ मिलकर रहें
उम्र भर
चोट खाये जनों का सहारा बनो
वक्त है
तेज अब दौड़िये

इन गीतों की लोच और लचक भरी अनेक विशेषताओं का विश्लेषण करते हुए बात और भी आगे बढ़ायी जा सकती है किन्तु वह मेरा अभीष्ट नहीं है। मेरा गीत प्रेमी पाठकों से यही अनुरोध है कि वे इस संग्रह के एक- एक गीत को पढ़कर उसमें डूबें और बृजनाथ के गीतों का आनन्द लें। विश्वास है कि ये गीत उनकी चेतना को बार-बार अपनी रसभीनी दस्तकों से देर तक दुलराते रहेंगे।

मैं गीतकार बृजनाथ श्रीवास्तव के मंगलमय भविष्य की कामना करता हूँ।

- देवेन्द्र शर्मा “इन्द्र”
इनद्रप्रस्थ 10/61, सेक्टर III राजेन्द्र नगर,
साहिबाबाद गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.)
दूरभाष - 0120-2634410

 

 

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