नई पुस्तकें >> रथ इधर मोड़िये रथ इधर मोड़ियेबृजनाथ श्रीवास्तव
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हृदयस्पर्शी कवितायें
कवि बृजनाथ श्रीवास्तव के गीतों की अधुनातन भंगिमा
आज की कविता प्रश्नों की कविता है। ऐसे प्रश्नों की जो हमारी आदिम आस्तिकता के वर्तमान समय में आहत होने से उपजे हैं। आज मानवता के सामने सदियों सदियों के आत्मानुशासन से अर्जित आस्थाओं और जीवन मूल्यों के क्षरण एवं विनष्ट होने का संकट उपस्थित हो गया है। सामाजिक उत्तरदायित्व बोध जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी मनुष्यता पोषित होती रही थी, आज लगभग समाप्त होने की कगार पर है। भावात्मक संज्ञान एवं रागबोध, जिनसे मनुष्य की अंतश्चेतना जाग्रत एवं सक्रिय रहती थी, आज उपेक्षित ही नहीं तिरस्कृत भी हैं। धर्म, जो मनुष्यता का मूलाधार था, आज विकृति की पराकाष्ठा प्राप्त कर चुका है। ऐसे में कविता ही एकमात्र सिद्धि बची है जिससे मानुषी आस्तिकता को समाप्त होने से बचाया जा सकता है। नवगीत कविता की इसी सिद्धि का काव्य है। वह फिलवक्त की नास्तिकता एवं मानुषिकता के अस्वीकार के प्रतिरोध में मनुष्य की संवेदना को जाग्रत करने रखने के लिए कृतसंकल्प है। उसके यक्ष प्रश्न हमें उस मूल सामूहिक रागात्मकता संचेतना से रू-ब-रू होने को विवश करते हैं जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है। भाई बृजनाथ श्रीवास्तव के नये संग्रह "रथ इधर मोड़िये" के अधिकांश नवगीत ऐसे ही हैं। वे हमारे अवचेतन में जिये आदिम रागतत्व को कुरेदते हैं, उसे सहेजते हैं। कहीं प्रकृति के आह्लाद के सहज आस्तिक स्वीकार से, तो कहीं अपसांस्कृतिक अमर्यादित आसुरी सम्पदा के प्रतिरोध से। इन गीतों को पढ़ना जीवन की सहजता से जुड़ना है।
घर के मन्दिर होने के पूजा भाव से इस संग्रह का प्रारम्भ होना मुझे बड़ा सम्मोहक लगा है। घर ही तो है मानुषिकता की संस्कार भूमि जिसमें पलते हैं हमारे नेह-छोह के सारे एहसास, सारे संसर्ग। घर का मकान हो जाना, यही तो आज के समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। घर का उत्सव मनाता संग्रह का यह प्रवेश गीत हमें याद दिलाता है आरती के गान की 'त्याग के मृदु प्यार के प्रतिमान' 'बन्धुओं' की एवं 'शीश पर हाथ माँ का शुभंकर' की और कहीं परोक्ष रूप में इस पूजा भाव के बिला जाने की भी।
प्रकृति के संसर्ग से उपजे उल्लास के गीत मुझे इस संग्रह की उपलब्धि लगे हैं। आज के जीवन से आज की कविताई से भी यह सहज उल्लास भाव तिरोहित हो गया है। ये गीत हैं वे यात्रा पथ, जिन पर विचार कर हम उन ऋषि संज्ञाओं से जुड़ पाते हैं, जो हमें नैसर्गिक उपलब्ध हैं, किन्तु जिन्हें हम अपनी आज की आपा-धापी भरी मात्र सैलानी दृष्टि के कारण पहचान नहीं पाते। इन गीतों के बिम्ब सहज चित्रात्मक हैं और मोहक भी 'ब्रह्म कमलों के बगीचे एवं गुफाओं' तथा 'तपोवन सप्त ऋषियों के' परिवेश में विरचे ये ऋचागीत सच में अनूठे बन पड़े हैं।
फिलवक्त की मुख्य चिन्ता मनुष्यता के पराभव की है। यह पराभव कई स्तरों पर इन कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है। संग्रह का एक गीत है सपने नई भोर के जिसमें उन बच्चों की गाथा है - अम्मा के संग / बीन रहे जो कूड़ा पालीथीन / और पिटारी लिए साँप की / बजा रहे जो बीन या जो हाथ पसारे/ माँग रहे हैं भीख - और गीत की समापन पंक्ति में - लोकतंत्र के हरे खेत को दाता लोग चरें - कह कर कवि ने आज की राजनीति, जो इस त्रासक स्थिति के लिए जिम्मेदार है, का आकलन कर इसे फिलवक्त का महाकाव्य बना दिया है। एक और गीत चलना मत चाल समूची की समूची प्रश्नों की कविता है। नवयुग के कवि बेताल के प्रश्नों की जिनका उत्तर आज के विक्रमों के पास नहीं है। क्योंकि वे स्वयं इन प्रश्नों के लिए जिम्मेदार हैं एक संवेदनशील मन से उपजे ये प्रश्न आज के यथार्थ की सटीक खबर देते हैं। देखें इस खबरनामा के कुछ अंश-
हरे-भरे खेतों के / कहाँ गये नाज / स्वर्ण विहग भिक्षुक हैं / बोलो क्यों आज / घर-घर में फैले क्यों बहुरंगी जाल / महलों में जलसों के/क्यों चलते खेल / अपराधी घूम रहे/सज्जन को जेल / चन्दन के तिलक धरे पाखण्डी भाल / आखिर क्यों डरते हैं / तुमसे सब लोग / सच-सच बतलाना नृप चलना मत चाल
आज के विक्रमों की चालबाजियों की ओर अंतिम पंक्ति में इंगित इन बेताल प्रश्नों को एक नया आयाम देते हैं। तथाकथित प्रजातंत्र के नाम पर जो कपट लीला आज चल रही है और जो एक भय और आतंक का व्यूह शासकों ने अपने चारों ओर रचा है, उसका इससे अच्छा आंकलन नहीं हो सकता था। इसी छल की कथा कहते हैं अपने-अपने इंद्रप्रस्थ, युग प्रवर्तक चोंचले, राजमहल आदि गीत राजमहल की अंतिम पद-पंक्तियाँ इस दृष्टि से बड़ी ही सटीक बन पड़ी हैं देखें-
जनता हित की लोक व्यवस्था / रचे यहाँ कानून / रोटी, पानी और हवा का/चूस रहे हैं खून / मरी झोपड़ी/किन्तु महल के/दिन पर दिन और बढ़े वैभव जंगल की आव भगत के लिए हुए जश्न में जो 'जनता हित की' / 'सात सुरों में बजती बीन' का छल है, उसी के साथ ठगी चल रही है विश्व हाट की, जिसका खुलासा कवि ने यों किया है-
बिस्तर पर जापान बिछा है / अलमारी में चीन / खाने की मेजों पर बैठा/अमरीकी नमकीन / बीमा बैंक/विदेशी हैं अब/हम कौड़ी के तीन
यह कौड़ी के तीन हो जाने के पीछे मति लोगों की हरि ने ही हर लीन की समस्या है। अस्तु, इसके लिए दोष किसे दिया जाये। सच तो यह है कि हमारे इस प्रजातंत्र और प्रगति के पीछे जो राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था है, वह अपने आप में छली एवं दम्भी है। संग्रह का शीर्षक गीत एक ओर इस झूठे दम्भ का पर्दाफाश करता है, तो दूसरी ओर राजमद में सराबोर राष्ट्र-रथ के सारथियों को उद्बोधित भी करता है। गीत के पहले और अन्तिम पद का पाठ इस दृष्टि से आवश्यक है- पहले पद में समस्या की प्रस्तुति है, तो अन्तिम पद में उसके समाधान की। देखें दोनों गीत अंश-
रहनुमा देश के /झुग्गियाँ क्यों जलीं/सोचिए तो जरा / पाँच तारे में तुम / बैठ करते रहे / रात-दिन मशविरा / जातियाँ धर्म तोड़ा किए देश को / मत अधिक तोड़िए / रथ इधर मोड़िये / साँस भर एक झोंका / पवन का मिले / जल मिले प्यास भर / काम हाथों में हो / प्यार के साथ मिलकर/ रहें उम्र भर / चोट खाये जनों का सहारा बनो / वक्त है दौड़िये / रथ इधर मोड़िये
रथ इधर मोड़िये कवि बृजनाथ का दूसरा नवगीत संग्रह है। अपने प्रवेश नवगीत संग्रह दस्तखत पलाश के की कविताओं में जिस अलग किस्म की भाव एवं कहन-भंगिमाओं को लेकर वे आये थे, यह संकलन उसी के आगे का पड़ाव है। दोनों संग्रहों के बीच आठ वर्ष के अंतराल में निश्चित ही उनका सोच अधिक विशद, अधिक प्रखर हुआ है। उनकी कहन मुद्रा भी और अधिक सहज हुई है। नवगीत के लगभग इक्यावन वर्ष के सफर के निस्संदेह वे एक महत्वपूर्ण सहयात्री हैं। पिछले एक दशक में जिन गीत-सर्जक ने नवगीत के शिखर को छुआ है, उनमें बृजनाथ का शुमार किया जाना लाजिमी है। नवगीत को निरन्तर एक नया आयाम देने का जो उनका आग्रह रहा है, वह यों ही बना रहे। यही उनके लिए मेरा स्नेहाशीष है।
- कुमार रवीन्द्र
क्षितिज 310, अर्बवन एस्टेट-2
हिसार - 125005
मो. - 09416992364
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